Wednesday 7 June 2017

अहल-ए-उल्फ़त के हवालों पे हँसी आती है

अहल-ए-उल्फ़त* के हवालों पे हँसी आती है
लैला मजनूँ के मिसालों पे हँसी आती है

जब भी तक़मील-ए-मोहब्बत* का ख़याल आता है
मुझको अपने ख़यालों पे हँसी आती है

लोग अपने लिये औरों में वफ़ा ढूँढते हैं
उन वफ़ा ढूँढनेवालों पे हँसी आती है

देखनेवालों तबस्सुम* को करम* मत समझो
उन्हें तो देखनेवालों पे हँसी आती है

चाँदनी रात मोहब्बत में हसीन थी “फ़ाकिर”
अब तो बीमार उजालों पे हँसी आती है

* अहल-ए-उल्फ़त – प्यार करने वाले लोग
* तक़मील-ए-मोहब्बत  = प्यार की सम्पूर्णता
* तबस्सुम  = मुस्कान
* करम  = दया, उपकार

सुदर्शन फ़ाकिर

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