Wednesday 31 May 2017

भरोसा मत करो साँसों की डोरी टूट जाती है

भरोसा मत करो साँसों की डोरी टूट जाती है
छतें महफ़ूज़ रहती हैं हवेली टूट जाती है

मुहब्बत भी अजब शय है वो जब परदेस में रोये
तो फ़ौरन हाथ की एक-आध चूड़ी टूट जाती है

कहीं कोई कलाई एक चूड़ी को तरसती है
कहीं कंगन के झटके से कलाई टूट जाती है

लड़कपन में किये वादे की क़ीमत कुछ नहीं होती
अँगूठी हाथ में रहती है मँगनी टूट जाती है

किसी दिन प्यास के बारे में उससे पूछिये जिसकी
कुएँ में बाल्टी रहती है रस्सी टूट जाती है

कभी एक गर्म आँसू काट देता है चटानों को
कभी एक मोम के टुकड़े से छैनी टूट जाती है

मुनव्वर राना 

गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं

गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं
अभी मस्जिद के दरवाज़े पे मायें रोज़ आती हैं

अभी रोशन हैं चाहत के दिये हम सबकी आँखों में
बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं

कोई मरता नहीं है , हाँ मगर सब टूट जाते हैं
हमारे शहर में ऎसी वबायें* रोज़ आती हैं

अभी दुनिया की चाहत ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा
अभी मुझको बुलाने दाश्तायें*रोज़ आती हैं

ये सच है नफ़रतों की आग ने सब कुछ जला डला
मगर उम्मीद की ठंडी हवायें रोज़ आती हैं

*  वबायें – बीमारियाँ
*  दाश्तायें – रखैलें

मुनव्वर राना 

मिट्टी में मिला दे की जुदा हो नहीं सकता

मिट्टी में मिला दे की जुदा हो नहीं सकता
अब इससे जयादा मैं तेरा हो नहीं सकता

दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँखें
रौशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता

बस तू मेरी आवाज़ में आवाज़ मिला दे
फिर देख की इस शहर में क्या हो नहीं सकता

ऎ मौत मुझे तूने मुसीबत से निकाला
सय्याद समझता था रिहा हो नहीं सकता

इस ख़ाकबदन को कभी पहुँचा दे वहाँ भी
क्या इतना करम बादे-सबा* हो नहीं सकता

पेशानी* को सजदे भी अता कर मेरे मौला
आँखों से तो यह क़र्ज़ अदा हो नहीं सकता

*बादे-सबा – बहती हवा
*पेशानी -माथे

मुनव्वर राना

कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ़ नहीं देखा

 कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ़ नहीं देखा
तुम्हारे बाद किसी की तरफ़ नहीं देखा

ये सोच कर कि तेरा इंतज़ार लाज़िम*है
तमाम उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा

यहाँ तो जो भी है आबे-रवाँ* का आशिक़ है
किसी ने ख़ुश्क नदी की तरफ़ नहीं देखा

वो जिस के वास्ते परदेस जा रहा हूँ मैं
बिछड़ते वक़्त उसी की तरफ़ नहीं देखा

न रोक ले हमें रोता हुआ कोई चेहरा
चले तो मुड़ के गली की तरफ़ नहीं देखा

बिछड़ते वक़्त बहुत मुतमुइन* थे हम दोनों
किसी ने मुड़ के किसी की तरफ़ नहीं देखा

रविश* बुज़ुर्गों की शामिल है मेरी घुट्टी में
ज़रूरतन भी सख़ी* की तरफ़ नहीं देखा

लाज़िम – आवश्यक
आबे-रवाँ – बहते हुए पानी का
मुतमुइन – संतुष्ट
रविश – आचरण
सख़ी – दानदाता

मुनव्वर राना 

तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते

अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी- चादर उठाते हैं

तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं

इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं

समुन्दर के सफ़र से वापसी का क्या भरोसा है
तो ऐ साहिल, ख़ुदा हाफ़िज़ कि हम लंगर उठाते हैं

ग़ज़ल हम तेरे आशिक़ हैं मगर इस पेट की ख़ातिर
क़लम किस पर उठाना था क़लम किसपर उठाते हैं

बुरे चेहरों की जानिब देखने की हद भी होती है
सँभलना आईनाख़ानो, कि हम पत्थर उठाते हैं

मुनव्वर राना

टुकड़ों में बिखरा हुआ किसी का जिगर दिखाएँगे

टुकड़ों में बिखरा हुआ किसी का जिगर दिखाएँगे
कभी आना हमारी बस्ती तुम्हे अपना घर दिखाएँगे !

होंठ काँप जाते हैं थर-थर्राती है ज़ुबान
टूटे दिल से निकली हुई आहों का असर दिखाएँगे !

एक पहुँच पाता नहीं और एक छलक जाता है
पलकों से दामन तक का अश्कों का सफ़र दिखाएँगे !

कभी आना हमारी बस्ती तुम्हे अपना घर दिखाएँगे !!
कहीं तस्वीर है तेरी कहीं लिखा है तेरा नाम
मंदिर-मस्जिद जितना पाक एक दीवार-ओ-दर दिखाएँगे !

अक्सर तकती रहती है सुनसान राहों को सनम
दरवाज़े पर बैठी हुई सपनो की नज़र दिखाएँगे।

कभी आना हमारी बस्ती तुम्हे अपना घर दिखाएँगे !!
मुनव्वर राना 

तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू गुलों से आती है

तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू गुलों से आती है
ख़बर तुम्हारी भी अब दूसरों से आती है

हमीं अकेले नहीं जागते हैं रातों में
उसे भी नींद बड़ी मुश्किलों से आती है

हमारी आँखों को मैला तो कर दिया है मगर
मोहब्बतों में चमक आँसुओं से आती है

इसी लिए तो अँधेरे हसीन लगते हैं
कि रात मिल के तेरे गेसुओं से आती है

ये किस मक़ाम पे पहुँचा दिया मोहब्बत ने
कि तेरी याद भी अब कोशिशों से आती है

       मुनव्वर राना  

वो दोस्ती हो मुहब्बत हो चाहे सोना हो

यह एहतराम तो करना ज़रूर पड़ता है
जो तू ख़रीदे तो बिकना ज़रूर पड़ता है

बड़े सलीक़े से यह कह के ज़िन्दगी गुज़री
हर एक शख़्स को मरना ज़रूर पड़ता है

वो दोस्ती हो मुहब्बत हो चाहे सोना हो
कसौटियों पे परखना ज़रूर पड़ता है

कभी जवानी से पहले कभी बुढ़ापे में
ख़ुदा के सामने झुकना ज़रूर पड़ता है

हो चाहे जितनी पुरानी भी दुश्मनी लेकिन
कोई पुकारे तो रुकना ज़रूर पड़ता है

शराब पी के बहकने से कौन रोकेगा ?
शराब पी के बहकना ज़रूर पड़ता है

वफ़ा की राह पे चलिए मगर ये ध्यान रहे
की दरमियान में सहरा ज़रूर पड़ता है

मुनव्वर राना 

गौतम की तरह घर से निकल कर नहीं जाते

गौतम की तरह घर से निकल कर नहीं जाते
हम रात में छुपकर कहीं बाहर नहीं जाते

बचपन में किसी बात पर हम रूठ गए थे
उस दिन से इसी शहर में है घर नहीं जाते

एक उम्र यूँ ही काट दी फ़ुटपाथ पे रहकर
हम ऐसे परिन्दे हैं जो उड़कर नहीं जाते

उस वक़्त भी अक्सर तुझे हम ढूँढने निकले
जिस धूप में मज़दूर भी छत पर नहीं जाते

हम वार अकेले ही सहा करते हैं ‘राना’
हम साथ में लेकर कहीं लश्कर नहीं जाते

मुनव्वर राना

उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं

उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं
क़द में छोटे हों मगर लोग बड़े रहते हैं

जाओ जा कर किसी दरवेश की अज़मत देखो
ताज पहने हुए पैरों में पड़े रहते हैं

जो भी दौलत थी वो बच्चों के हवाले कर दी
जब तलक मैं नहीं बैठूँ ये खड़े रहते हैं

मैंने फल देख के इन्सानों को पहचाना है
जो बहुत मीठे हों अंदर से सड़े रहते हैं

मुनव्वर राना 

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है

उछलते खेलते बचपन में बेटा ढूँढती होगी
तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है

तभी जा कर कहीं माँ-बाप को कुछ चैन पड़ता है
कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है

चमन में सुबह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है
कली जब सो के उठती है तो तितली मुस्कुराती है

हमें ऐ ज़िन्दगी तुझ पर हमेशा रश्क आता है
मसायल से घिरी रहती है फिर भी मुस्कुराती है

बड़ा गहरा तअल्लुक़ है सियासत से तबाही का
कोई भी शहर जलता है तो दिल्ली मुस्कुराती है

मुनव्वर राना 

हम दोनों में आँखें कोई गीली नहीं करता

 हम दोनों में आँखें कोई गीली नहीं करता
ग़म वो नहीं करता है तो मैं भी नहीं करता

मौक़ा तो कई बार मिला है मुझे लेकिन
मैं उससे मुलाक़ात में जल्दी नहीं करता

वो मुझसे बिछड़ते हुए रोया नहीं वरना
दो चार बरस और मैं शादी नहीं करता

वो मुझसे बिछड़ने को भी तैयार नहीं है
लेकिन वो बुज़ुर्गों को ख़फ़ा भी नहीं करता

ख़ुश रहता है वो अपनी ग़रीबी में हमेशा
‘राना’ कभी शाहों की ग़ुलामी नहीं करता

मुनव्वर राना 

ये देख कर पतंगे भी हैरान हो गयी

ये देख कर पतंगे भी हैरान हो गयी
अब तो छते भी हिन्दू -मुसलमान हो गयी

क्या शहर -ए-दिल में जश्न -सा रहता था रात -दिन
क्या बस्तियां थी ,कैसी बियाबान हो गयी

आ जा कि चंद साँसे बची है हिसाब से
आँखे तो इन्तजार में लोबान हो गयी

उसने बिछड़ते वक़्त कहा था कि हँस के देख
आँखे तमाम उम्र को वीरान हो गयी

 मुनव्वर राना 

हुकूमत के इशारे पे तो मुर्दा बोल सकता है

मैं दहशतगर्द था मरने पे बेटा बोल सकता है
हुकूमत के इशारे पे तो मुर्दा बोल सकता है

यहाँ पर नफ़रतों ने कैसे कैसे गुल खिलाये हैं
लुटी अस्मत बता देगी दुपट्टा बोल सकता है

हुकूमत की तवज्जो चाहती है ये जली बस्ती
अदालत पूछना चाहे तो मलबा बोल सकता है

कई चेहरे अभी तक मुँहज़बानी याद हैं इसको
कहीं तुम पूछ मत लेना ये गूंगा बोल सकता है

बहुत सी कुर्सियाँ इस मुल्क में लाशों पे रखी हैं
ये वो सच है जिसे झूठे से झूठा बोल सकता है

सियासत की कसौटी पर परखिये मत वफ़ादारी
किसी दिन इंतक़ामन मेरा गुस्सा बोल सकता है

मुनव्वर राना

हर एक आवाज़ उर्दू को फरियादी बताती है

हर एक आवाज़ उर्दू को फरियादी बताती है
ये पगली फिर भी अब तक खुद को शहजादी बताती है

कई बातें मोहब्बत सबको बुनियादी बताती हैं
जो परदादी बताती थी वही दादी बताती हैं

जहाँ पिछले कई बरसों से काले नाग रहते हैं
वहाँ एक घोसला चिडियों का था दादी बताती है

अभी तक ये इलाका है रवादारी के कब्ज़े में
अभी फिरकापरस्ती* कम है आबादी बताती है

यहाँ वीरानियों की एक मुद्दत से हुकूमत है
यहाँ से नफरते गुजरी हैं बर्बादी बताती है

लहू कैसे बहाया जाए ये लीडर बताते हैं
लहू का जायका कैसा है ये खादी बताती है

गुलामी  ने अभी तक मुल्क का पीछा नहीं छोड़ा
हमे फिर कैद होना है ये आज़ादी बताती है

गरीबी  क्यूँ हमारे शहर से बाहर नहीं जाती
अमीर-ए-शहर के घर की हर एक शादी बताती है

मैं उन आँखों के मयखाने में थोड़ी देर बैठा था
मुझे दुनिया नशे का आज तक आदी बताती है

फिरकापरस्ती – साम्प्रदायिकता
मुनव्वर राना 

मैं लोगों से मुलाकातों के लम्हे याद रखता हूँ

 मैं लोगों से मुलाकातों के लम्हे याद रखता हूँ
मैं बातें भूल भी जाऊं तो लहजे याद रखता हूँ

सर-ए-महफ़िल निगाहें मुझ पे जिन लोगों की पड़ती हैं
निगाहों के हवाले से वो चेहरे याद रखता हूँ

ज़रा सा हट के चलता हूँ ज़माने की रवायत से
कि जिन पे बोझ मैं डालू वो कंधे याद रखता हूँ

दोस्ती जिस से कि उसे निभाऊंगा जी जान से
मैं दोस्ती के हवाले से रिश्ते याद रखता हूँ

मुनव्वर राना 

यह एहतराम तो करना ज़रूर पड़ता है

यह एहतराम तो करना ज़रूर पड़ता है
जो तू ख़रीदे तो बिकना ज़रूर पड़ता है

बड़े सलीक़े से यह कह के ज़िन्दगी गुज़री
हर एक शख़्स को मरना ज़रूर पड़ता है

वो दोस्ती हो मुहब्बत हो चाहे सोना हो
कसौटियों पे परखना ज़रूर पड़ता है

कभी जवानी से पहले कभी बुढ़ापे में
ख़ुदा के सामने झुकना ज़रूर पड़ता है

हो चाहे जितनी पुरानी भी दुश्मनी लेकिन
कोई पुकारे तो रुकना ज़रूर पड़ता है

शराब पी के बहकने से कौन रोकेगा
शराब पी के बहकना ज़रूर पड़ता है

वफ़ा की राह पे चलिए मगर ये ध्यान रहे
कि दरमियान में सहरा ज़रूर पड़ता है

मुनव्वर राना

जब भी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई

जब भी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई
देर तक बैठ के तन्हाई में रोया कोई

लोग माज़ी* का भी अन्दाज़ा लगा लेते हैं
मुझको तो याद नहीं कल का भी क़िस्सा कोई

बेसबब* आँख में आँसू नहीं आया करते
आपसे होगा यक़ीनन  मेरा रिश्ता कोई

याद आने लगा एक दोस्त का बर्ताव मुझे
टूट कर गिर पड़ा जब शाख़ से पत्ता कोई

बाद में साथ निभाने की क़सम खा लेना
देख लो जलता हुआ पहले पतंगा कोई

उसको कुछ देर सुना लेता हूँ रूदादे-सफ़र*
राह में जब कभी मिल जाता है अपना कोई

कैसे समझेगा बिछड़ना वो किसी का “राना”
टूटते देखा नहीं जिसने सितारा कोई

माज़ी – अतीत
बेसबब – अकारण
रूदादे-सफ़र – यात्रा का विवरण

मुनव्वर राना 

रोने में इक ख़तरा है, तालाब नदी हो जाते हैं

 रोने में इक ख़तरा है, तालाब नदी हो जाते हैं
हंसना भी आसान नहीं है, लब ज़ख़्मी हो जाते हैं

इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं
पत्ते देहाती रहते हैं, फल शहरी हो जाते हैं

बोझ उठाना शौक कहाँ है, मजबूरी का सौदा है
रहते-रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं

सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये, लेकिन इतना ध्यान रहे
सबसे हंसकर मिलने वाले, रुसवा भी हो जाते हैं

अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म-ए-तर की चाहत में
कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं

मुनव्वर राना 

हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आए

हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आए
जब सूखने लगे तो जलाने के काम आए

तलवार की नियाम कभी फेंकना नहीं
मुमकिन है दुश्मनों को डराने के काम आए

कच्चा समझ के बेच न देना मकान को
शायद कभी ये सर को छुपाने के काम आए

ऐसा भी हुस्न क्या कि तरसती रहे निगाह
ऐसी भी क्या ग़ज़ल जो न गाने के काम आए

वह दर्द दे जो रातों को सोने न दे हमें
वह ज़ख़्म दे जो सबको दिखाने के काम आए

मुनव्वर राना 

मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती

मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती

मैं इक दिन बेख़याली में कहीं सच बोल बैठा था
मैं कोशिश कर चुका हूँ मुँह की कड़ुवाहट नहीं जाती

जहाँ मैं हूँ वहीं आवाज़ देना जुर्म ठहरा है
जहाँ वो है वहाँ तक पाँव की आहट नहीं जाती

मोहब्बत का ये जज्बा  जब ख़ुदा कि देन है भाई
तो मेरे रास्ते से क्यों ये दुनिया हट नहीं जाती

वो मुझसे बेतकल्लुफ़ हो के मिलता है मगर ‘राना’
न जाने क्यों मेरे चेहरे से घबराहट नहीं जाती.

मुनव्वर राना 

मैं उसको छोड़ न पाया बुरी लतों की तरह

मैं उसको छोड़ न पाया बुरी लतों की तरह
वो मेरे साथ है बचपन की आदतों की तरह

मुझे सँभालने वाला कहाँ से आएगा
मैं गिर रहा हूँ पुरानी इमारतों की तरह

हँसा-हँसा के रुलाती है रात-दिन दुनिया
सुलूक इसका है अय्याश औरतों की तरह

वफ़ा की राह मिलेगी, इसी तमना में
भटक रही है मोहब्बत भी उम्मतों की तरह

मताए-दर्द-लूटी तो लुटी ये दिल भी कहीं
न डूब जाए गरीबों की उजरतों की तरह

खुदा करे कि उमीदों के हाथ पीले हों
अभी तलक तो गुज़ारी है इद्दतों की तरह

यहीं पे दफ़्न हैं मासूम चाहतें ‘राना’
हमारा दिल भी है बच्चों की तुरबतों की तरह

मुनव्वर राना 

सियासी आदमी की शक्ल तो प्यारी निकलती है

 सियासी आदमी की शक्ल तो प्यारी निकलती है
मगर जब गुफ्तगू करता है चिंगारी निकलती है

लबों पर मुस्कराहट दिल में बेजारी निकलती है
बडे लोगों में ही अक्सर ये बीमारी निकलती है

मोहब्बत को जबर्दस्ती तो लादा जा नहीं सकता
कहीं खिडकी से मेरी जान अलमारी निकलती है

यही घर था जहां मिलजुल के सब एक साथ रहते थे
यही घर है अलग भाई की अफ्तारी निकलती है

मुनव्वर राना 

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है

रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूँ
रोज़ उंगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है

दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं
सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है

रात भर जागते रहने का सिला है शायद
तेरी तस्वीर-सी महताब* में आ जाती है

एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा
सारी दुनिया दिले- बेताब में आ जाती है

ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा* ओढ़े हुए
कूचा – ए – रेशमो -किमख़्वाब में आ जाती है

दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें
सारी मिट्टी मिरे तालाब में आ जाती है

महताब – चाँद
रिदा- चादर

मुनव्वर राना 

घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं

घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
बेटियाँ धान के पौधों की तरह होती हैं

उड़के एक रोज़ बड़ी दूर चली जाती हैं
घर की शाख़ों पे ये चिड़ियों की तरह होती हैं

सहमी-सहमी हुई रहती हैं मकाने दिल में
आरज़ूएँ भी ग़रीबों की तरह होती हैं

टूटकर ये भी बिखर जाती हैं एक लम्हे में
कुछ उम्मीदें भी घरौंदों की तरह होती हैं

आपको देखकर जिस वक़्त पलटती है नज़र
मेरी आँखें , मेरी आँखों की तरह होती हैं

बाप का रुत्बा भी कुछ कम नहीं होता लेकिन
जितनी माँएँ हैं फ़रिश्तों की तरह होती हैं

मुनव्वर राना 

जहां तक हो सका हमने तुम्हें परदा कराया है

जहां तक हो सका हमने तुम्हें परदा कराया है
मगर ऐ आंसुओं! तुमने बहुत रुसवा कराया है

चमक यूं ही नहीं आती है खुद्दारी के चेहरे पर
अना* को हमने दो दो वक्त का फाका कराया है

बड़ी मुद्दत पे खायी हैं खुशी से गालियाँ हमने
बड़ी मुद्दत पे उसने आज मुंह मीठा कराया है

बिछड़ना उसकी ख्वाहिश थी न मेरी आरजू लेकिन
जरा सी जिद ने इस आंगन का बंटवारा कराया है

कहीं परदेस की रंगीनियों में खो नहीं जाना
किसी ने घर से चलते वक्त ये वादा कराया है

खुदा महफूज रखे मेरे बच्चों को सियासत से
ये वो औरत है जिसने उम्र भर पेशा कराया है

अना  =  स्वाभिमान
महफूज  =  सलामत, सुरक्षित

मुनव्वर राना

मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है

मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है

तवायफ़ की तरह अपने ग़लत कामों के चेहरे पर
हुकूमत मंदिरों-मस्जिद का पर्दा डाल देती है

हुकूमत मुँह-भराई के हुनर से ख़ूब वाक़िफ़ है
ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा डाल देती है

कहाँ की हिजरतें कैसा सफ़र कैसा जुदा होना
किसी की चाह पैरों में दुपट्टा डाल देती है

ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती-जुलती है
कहीं भी शाख़े-गुल देखे तो झूला डाल देती है

भटकती है हवस दिन-रात सोने की दुकानों में
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है

हसद* की आग में जलती है सारी रात वह औरत
मगर सौतन के आगे अपना जूठा डाल देती है

*हिज़रत  =  संकट के समय अपनी जन्म-भूमि छोड़कर कहीं दूसरी जगह चले जाना, देश-त्याग, मुहम्मद साहब के जीवन की वह घटना जिसमें वे अपनी जन्म-भूमि मक्का का परित्याग करके मदीने चले गये थे
* हसद  =  ईर्ष्या

मुनव्वर राना 

इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिये

इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिये
आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिये

आप दरिया हैं तो फिर इस वक्त हम खतरे में हैं
आप कश्ती हैं तो हमको पार होना चाहिये

ऐरे गैरे लोग भी पढ़ने लगे हैं इन दिनों
आपको औरत नहीं अखबार होना चाहिये

जिंदगी कब तलक दर दर फिरायेगी हमें
टूटा फूटा ही सही घर बार होना चाहिये

अपनी यादों से कहो इक दिन की छुट्टी दें मुझे
इश्क के हिस्से में भी इतवार होना चाहिये

मुनव्वर राना 

सब के कहने से इरादा नहीं बदला जाता

सब के कहने से इरादा नहीं बदला जाता
हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता

हम तो शायर हैं सियासत नहीं आती हमको
हम से मुंह देखकर लहजा नहीं बदला जाता

हम फकीरों को फकीरी का नशा रहता हैं
वरना क्या शहर में शजरा* नहीं बदला जाता

ऐसा लगता हैं के वो भूल गया है हमको
अब कभी खिडकी का पर्दा नहीं बदला जाता

जब रुलाया हैं तो हसने पर ना मजबूर करो
रोज बीमार का नुस्खा नहीं बदला जाता

गम से फुर्सत ही कहाँ है के तुझे याद करू
इतनी लाशें हैं तो कान्धा नहीं बदला जाता

उम्र एक तल्ख़ हकीकत हैं दोस्तों फिर भी
जितने तुम बदले हो उतना नहीं बदला जाता

शजरा  =  वंश क्रम का चार्ट
मुनव्वर राना 

बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है

बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है

यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे
यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है

चलो माना कि शहनाई मोहब्बत की निशानी है
मगर वो शख्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है ?

बढ़े बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं ?
कुएं में छुप के क्यों आखिर ये नेकी बैठ जाती है ?

नक़ाब उलटे हुए गुलशन से वो जब भी गुज़रता है
समझ के फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है

सियासत नफ़रतों का ज़ख्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है

वो दुश्मन ही सही आवाज़ दे उसको मोहब्बत से
सलीक़े से बिठा कर देख हड्डी बैठ जाती है

मुनव्वर राना 

बुलंदी देर तक किस शख्श के हिस्से में रहती है

 बुलंदी देर तक किस शख्श के हिस्से में रहती है
बहुत ऊँची इमारत हर घडी खतरे में रहती है

ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता,
मैं जब तक घर न लौटूं, मेरी माँ सज़दे में रहती है

जी तो बहुत चाहता है इस कैद-ए-जान से निकल जाएँ हम
तुम्हारी याद भी लेकिन इसी मलबे में रहती है

अमीरी रेशम-ओ-कमख्वाब में नंगी नज़र आई
गरीबी शान से एक टाट के परदे में रहती है

मैं इंसान हूँ बहक जाना मेरी फितरत में शामिल है
हवा भी उसको छू के देर तक नशे में रहती है

मोहब्बत में परखने जांचने से फायदा क्या है
कमी थोड़ी बहुत हर एक के शज़र* में रहती है

ये अपने आप को तकसीम* कर लेते है सूबों में
खराबी बस यही हर मुल्क के नक़्शे में रहती है

शज़र  =  पेड़
तकसीम  =  बांटना

मुनव्वर राना 

Tuesday 30 May 2017

हमने कोशिश करके देखी

हमने कोशिश करके देखी पत्थर को पिघलाने की
पत्थर कभी नहीं पिघले अब मानी बात जमाने की।
हमने कोशिश करके देखी दुश्मन यार बनाने की
दुश्मन कभी ना यार बने ये बात है सोलह आने की।
उनको भी तो आदत नाही दिल का दर्द बताने की
हमको भी आदत ना नाहक अपनापन जतलाने की ।
अपना तो है दर्द से रिश्ता भूख-गरीबी से यारी
हमने भूखों जीना सीखा आदत ना हाथ फैलाने की ।
हर मानव दुखियारा जग में कोई खुशी नही दिखता
फिर हम क्यों कोशिश भी करते अपना दर्द बताने
मिलते ही वो शुरू हो गए अपने दर्द बताने को
मेरी तो बारी ना आई अपनी बात सुनाने की ।
शायद वो मेरा हो जाता जो मैं दिल की कह पाता
होती बात है यूं क्या 'रोहित' दिल अपना समझाने की।
- रोहित कुमार 'हैप्पी'

Friday 26 May 2017

कोई चेहरा किसी को उम्र भर अच्छा नहीं लगता

 कोई चेहरा किसी को उम्र भर अच्छा नहीं लगता
हसीं है चाँद भी, शब भर अच्छा नहीं लगता

अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
परिन्दों के न होने से शजर अच्छा नहीं लगता

कभी चाहत पे शक करते हुए यह भी नहीं सोचा
तुम्हारे साथ क्यों रहते अगर अच्छा नहीं लगता

ज़रूरत मुझको समझौते पे आमादा तो करती है
मुझे हाथों को फैलाते मगर अच्छा नहीं लगता

मुझे इतना सताया है मेरे अपने अज़ीज़ों ने
कि अब जंगल भला लगता है घर अच्छा नहीं लगता

मेरा दुश्मन कहीं मिल जाए तो इतना बता देना
मेरी तलवार को काँधों पे सर अच्छा नहीं लगता

मुनव्वर राना