ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्सल* फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों* में
न इन में वो कशिश होगी , न बू होगी , न रआनाई
खिलेंगे फूल बेशक लॉन की लम्बी कतारों में
अदीबो ! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक़ के चाँद-तारों में
रहे मुफ़लिस गुज़रते बे-यक़ीनी के तजरबे से
बदल देंगे ये इन महलों की रंगीनी मज़ारों में
कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गई शायद
जो है संगीन के साये की चर्चा इश्तहारों में
* मुसल्सल – कैद
* अदबी इदारों – सभ्य समाजो
* मुलम्मा – सोने की परत
* मुफ़लिस – गरीब
* तजरबे – अनुभव
अदम गोंडवी
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