Thursday 29 June 2017

सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद है



सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद* है
दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है

कोठियों से मुल्क के मेआर* को मत आंकिए
असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पे आबाद है

जिस शहर में मुंतजिम* अंधे हो जल्वागाह के
उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है

ये नई पीढ़ी पे मबनी* है वहीं जज्मेंट दे
फल्सफा गांधी का मौजूं* है कि नक्सलवाद है

यह गजल मरहूम मंटों की नजर है, दोस्तों
जिसके अफसाने में ‘ठंडे गोश्त’ की रुदाद* है

* नाशाद – उदास, दुखी
* मेआर – मापदंड, रूतबा
* मुन्तज़िम – व्यवस्थापक
* मबनी – निर्भर
* मौजूं – उचित, उपयुक्त
* रूदाद – विवरण, वृतांत

अदम गोंडवी

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