Thursday 8 June 2017

किस्तों में ख़ुदकुशी का मज़ा हम से पूछिए

इक पल में इक सदी का मज़ा हम से पूछिए
दो दिन की ज़िंदगी का मज़ा हम से पूछिए

की भूले हैं रफ्ता रफ्ता उन्हें मुदत्तों  में हम
किस्तों में ख़ुदकुशी का मज़ा हम से पूछिए

आगाज़-ए -आशिक़ी का मज़ा आप जानिये
अंज़ाम-ए-आशिक़ी का मज़ा हम से पूछिए

जलते दीयों में जलते घरों जैसी जौ  कहाँ
सरकार रौशनी का मज़ा हम से पूछिए

वो जान ही गए की हमें उनसे प्यार है
आँखों की मुखबिरी का मज़ा हम से पूछिए

की हसने का शौक़ हमको ही था आप की तरह
हंसिये मगर हसी का मज़ा हम से पूछिए

हम तौबा कर के मर गए बेमौत-ए-‘खुमार’
तौहीन-ए-मैकशी का मज़ा हम से पूछिए

ख़ुमार बाराबंकवी

No comments:

Post a Comment