Thursday 29 June 2017

बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को



बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को

सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो* दीजिए
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान* को

शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को

पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है
इस अहद* की सभ्यता नफ़रत के रेगिस्तान को

* तवज्जों – ध्यान
* दस्तरख़्वान – रसोई घर, खाना खाने का स्थान
* अहद – युग, काल

अदम गोंडवी

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