Thursday, 29 June 2017

न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से



न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन* में निखार आता है घीसू के पसीने से

कि अब मर्क़ज़* में रोटी है, मुहब्बत हाशिए पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से

अदब का आईना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से

बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत* का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने* से

अदीबों* की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से

* तमद्दुन – सभ्यता, संस्कृति
* मर्क़ज़ – केन्द्र, सेन्टर
* ता-क़यामत – क़यामत तक
* साहिल – किनारे
* सफीने – नाव
* अदीबों – सभ्य लोग

अदम गोंडवी

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