Saturday 26 March 2016

मेरा दर्द

दर्द
नन्हा-सा
ढाई अक्षर का शब्द
किंतु
कितना व्यापक
कितना फैला
कितना शाश्वत
कितना विश्वस्त
कि सबकुछ बदला
पर यह नहीं बदला।

दर्द
की कोई सीमा नहीं
यह असीम इतना
जितना नीला आकाश
यह मादक इतना
कि मौलवी भी मदहोश
यह घातक इतना 
कि हलचल भी खामोश।

दर्द
विधि की अद्भुत रचना
जिसने डाल दी है
सबमें चेतना
इसी की प्रसव-वेदना से
जन्म होता है
इनसान का
निर्माण का
उत्थान का
वाल्मीकि की रामायण का
वेद का, पुराण का
बाइबिल का, कुरान का।

दर्द
से ही 
होती है
शक्ति की अनुभूति
प्यार की आसक्ति
बनती-बिगड़ती
समय की आकृति।

दर्द
रामराज्य
हरिश्चंद्र का सत्य
भरत को ही राम की पादुका
सीता को ही रावण की वाटिका
यह आधार है
हर युग के इतिहास का
सभ्यता, संस्कृति, धर्म के
अटल विश्वास का
यह अभ्यास है
आज के प्रयास का
कल के विकास का।

दर्द
अगर खामोश हो जाए
तो सारा राष्ट्र सो जाए
अगर मदहोश हो जाए
द्रौपदी के विप्लव-सा
तो ‘महाभारत’ हो जाए
यदि बोझिल हो जाए
अर्जुन के विभाव-सा
तो ‘गीता’ का आविर्भाव हो जाए।

दर्द
सूर-मीरा के गीत
बैजू का संगीत
तुलसी की भक्ति
शिवा की शक्ति
तानसेन का मल्हार
हीर-राँझा का प्यार
पद्मिनी का जौहर से श्रृंगार
प्रताप की शूरता का पारावार।

दर्द
महावीर की अहिंसा
गौतम का ज्ञानबोध
पृथ्वीराज की कहानी
चंदबरदाई की जुबानी
शाहजहाँ का ताजमहल
गालिब की गजल
1857 की हलचल
लक्ष्मीबाई की झाँसी
भगतसिंह को फाँसी।

दर्द
का बोध ही
बनाता है इतिहास
नेहरू-गांधी, सुभाष
स्वतंत्रता का उल्लास
गणतंत्र का आभास
प्रगति का प्रयास
नए भारत का
नया आकाश
आगे बढ़ने को
खुशहाली के लिए
झिलमिल प्रकाश।

दर्द
दुनिया की सबसे बड़ी दौलत
जो मिलता है
बढ़ता है
अन-चाह कर
कम नहीं होता मन चाह कर।

दर्द
की अनुभूति
अभिव्यक्ति
आकृति
एक-सी है
चाहे दर्द हो
सेहत का
शोहरत का 
दौलत का
चाहत का
मोहब्बत का।

दर्द 
देता है
एक-सी धड़कन
एक-सी सिहरन
क्योंकि
यह सहज संभाव्य है
ईश्वर का
अद्वितीय न्याय है।

दर्द
पारदर्शी है
चाहे फिर वह हो
प्रजा का
या राजा का
अमीर का
या फकीर का।

दर्द
पाया है
अधूरी साधना से
किसी अतृप्त आराधना से
किसी कर्तव्य पर
समर्पित हो गई भावना से
इसलिए
सँजो रखा है
इसे दिल के किसी कोने पर
बचा रखा है
किसी जादू-टोने से
इतना न हँसो
किसीके रोने पर
गमगीन होने पर
कि सर्द बन वह मचल उठे
दर्द बन तुम्हें निगल उठे।

दर्द
व्यधिक है
पथिक है
याचक है
जो न जाने कब
तुम्हारे
द्वार खटखटा दे
और खुद सोकर
तुम्हें जगा दे।

Friday 18 March 2016

स्याही सस्ती और कलम उधार की

शब्द ...गहरे अर्थों वाले 
भाव ...कुछ मनचले से 
श्वास भर समीर ......चंचल महकी 
सफेद चंपा ......कुछ पत्तियाँ पीली 
एक राग मल्हार 
अमावस की रात 
घास ...तितलियाँ 
बत्तख ...मछलियाँ 
फूलों के रंग ...वसंत का मन 
तड़प ...थोड़ी चुभन 
स्मृति की धडकन 
एक माचिस आग 
एक मुठ्ठी राख 
एक टुकड़ा धूप 
चाँद का रुपहला रूप 
सब बाँधा है आँचल में 
और हाँ ...एक सितारा 
बस एक ...अपने नाम का 
टाँका है अपने गगन में 

रुको ! कुछ स्वार्थ भी भर लूँ 
.....संवेदना के भीतर 
एक कविता जो लिखनी है मुझे ...
अपने ऊपर- 

Sunday 13 March 2016

एक ग़रीब बच्चे की नज़र से

एक गरीब बच्चे की नज़र से :-
सिक्कों में खनकते हर एहसास को देखा..
आज फिर मैंने अपने दबें हाल को देखा...
अंगीठी में बन रही थी जो कोयले पे रोटियाँ..
आज फिर मैंने अपनी माँ के जले हाथ को देखा...
बट रही थी हर तरफ किताबे और कापियाँ..
आज फिर मैंने अपने हिस्से के कोरे कागज़ को देखा...
सज रही थी हर तरफ बुलंदियों पर खिड़कियाँ..
आज फिर मैंने अपने धंसते संसार को देखा...
चढ़ रही थी हर तरफ दुआओं की अर्ज़ियाँ..
मंदिर भी माँ मैंने तेरे पांव में देखा...
लग रही थी जब मेरे अरमानो की बोलियाँ..
हर ख्वाब-ए-चादर को अपने पांव की सिमट में देखा...

Saturday 12 March 2016

तेरी ख़ामोशी मेरी ख़ामोशी

मैं इंतजार में हूं कि कब टूटेगी तेरी खामोशी..
तुम इंतजार में हो कि नहीं, देख मेरी खामोशी..

दर्द उठता है दिल में सुरलहर की तरह..
मैं किस तरह बयां करूं रोती हुई खामोशी..

नगमों के रहगुजर में हैं उदासी भरे कांटे..
लफ़्जों में तड़पती है चुभती हुई खामोशी..

मैं परेशां नहीं हूं अपनी गम भरी दुनिया से..
मैं परेशां हूं देखकर तेरी दर्द भरी खामोशी..

Friday 11 March 2016

दर्द भरी हास्य कविता

फटी-सी एक डायरी में, लिख रखा है मैंने;
है पाई-पाई का तेरे, हर जख्मों का हिसाब |

कब तूने तोड़ा दिल, कब की थी रुसवाई;
कब हुई थी बेवफा, हर तारीख है जनाब |

क्यों फोन का मेरे, ना दिया था जवाब,
भागती ही रही दूर, ओढ़ नकली हिज़ाब |

पछताओगी एक दिन, याद करोगी मुझको;
जब ढल जायेगा यौवन, जब लगाओगी खिजाब |

वो मुस्कुराहट भी तेरी, बेशर्मों-सी ही थी;
जब घुटनों के बल आके, तुझे देता था गुलाब |

बस दोस्त कभी कहती, कभी प्यार थी बनाती;
बिन पेंदी के लौटा का, तुझे दूंगा मैं खिताब |

दुखाया है इस दिल को, तूने जाने कितनी बार;
आंसूं हैं दिए तूने, मुझ गरीब को बेहिसाब |

झूठे तेरे प्रेम पत्र, फेंक दिए हैं मैंने;
कोई गिरा गंगा में, कोई जा गिरा चिनाब |

कभी प्यार से की बातें, कभी गोलियां जैसे बोली;
लहू-लुहान किया दिल को, क्या तेरा भाई था कसाब ?

ना हो तू यूँ बेताब, तुझे मिल जायेगा जवाब;
जब छापूंगा ये किताब, तेरे जख्मों का हिसाब |


Wednesday 9 March 2016

मेरी यादों की रद्दी

कविता की मौत पर

उस शाम जब तुम मिली थी आखिरी बार, तुमने वादा किया था फिर कभी ना मिलने का। तुम्हारे जाने के बाद भी वही बैठा रहा था मैं, जहाँ छोड़ कर चली गई थी तुम मुझे। कितनी ही देर वहीं चौपाटी पर, पानी में पैर डालकर बैठा रहा था मैं ख़ामोश।

एकटक पानी को देखे जा रहा था, बनती लहरों के साथ टूटते सपने डूबते जा रहे थे। मैं बचाना चाहता था। पर कैसे बचाता, और किसे बचाता? एक मैं था जिसे तैरना नही आता, एक वो था जो डूबना चाहता था। डूबने दिया मैंने उसे, अपनी आँखों के सामने। हर एक सपने की मौत पर कोई रो रहा था, यक़ीनन वो मैं तो नही था। वो तो कोई आशिक था एक लड़की का, जिसकी खुशबू हवाओ में उसके जाने के बाद भी महसूस हो रही थी।

रात की 10 बज चुके थे। चौपाटी के गार्ड ने मुझे देखा। और बिना कुछ बोले डांटने लगे। अगर आज मैं दुखी न होता तो शायद लड़ भी जाता। तुम्हे मालूम हैं ना मेरा फ़िज़ूल का गुस्सा। पर मैंने कुछ भी नही कहा। कहता भी तो क्या? उनको लगा होगा, कोई जान देने आया हैं। वैसे गलत थोड़े ही लगा था, जान देने ही तो आया था मैं।

मौत नहीं बल्कि ज़िन्दगी ही मेरी जान लेकर चली गई, और किसी को मालूम तक नहीं। शायद ज़िन्दगी को भी नहीं।

उस शाम वहीं पर बैठे बैठे एक कविता लिखी थी। मेरी सबसे अच्छी कविता तो नहीं पर सबसे करीब जरुर थी। याद हैं मुझे उस शाम में रोया नहीं था। आँसू आँखों में भरे थे पर निकले नहीं। बस लिखता गया था जो कुछ भी याद आता जा रहा था। सारा दर्द उस कविता के भीतर उतार दिया था।

तुम्हारे जाने के बाद कई बार उसे पढ़ा मैंने। उसमे कुछ भी नहीं बदला। वो अधूरी लिखी या पूरी? मालूम नहीं। पर उस को पढ़कर पूरा महसूस किया करता हूँ मैं खुद को।

तुम्हे तो पता ही हैं, मैं कितना केयरलेस हूँ। आज जब उस कविता को मै ब्लॉग पर सेव करने वाला था तो ऑल सेलेक्ट करने के बाद, कॉपी की जगह पेस्ट हो गई। मतलब उस की जगह किसी ओर ने ले ली।

जैसे मेरी जगह ले ली हैं किसी और ने। हाँ मैं बन गया था वो कविता जो मुझको याद नहीं। और मेरी जगह लिखा जा चुका था 'कोई भी'। हाँ उस 'कोई भी' से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। फ़र्क पड़ता हैं तो बस इस से वो 'कोई भी' मैं नहीं था।

खुद को भूलने का एहसास मुझे इतना डरा देगा, मैंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था। मैं खुद को याद करना चाहता था। उस पल मेरे हाथ पैर ही सुन्न हो गये। मेरे दिमाग में बार बार एक ही लाइन आ रही थी। उस कविता की पहली लाइन मेरे दिमाग में आखिरी लाइन थी:

"आखिर तुम भी चली गई।"

मैंने बहुत सोचा, बहुत देर तक सोचा, पर कुछ याद नहीं आया। पर आँखों में कुछ नमीं सी आ गई। दिल में इतना गहरा दर्द उठा, जैसे मैंने तुझे फिर से खोया हो। उस पल महसूस हुआ किसी को खोने से ज्यादा मुश्किल तो किसी को खोने का एहसास हैं। मैंने तुम्हें खो दिया था, तुम्हारे एहसास को नहीं। शायद क़ैद कर लिया था मैंने तेरे एहसास को उस कविता में। और आज वहाँ से भी चला गया था तेरा एहसास।

इतना दर्द तो तब भी नहीं हुआ जब तुम छोड़ कर गई थी। आज तुम्हारे जाने के बाद पहली बार किसी को खोने का दर्द महसूस कर रहा हूँ। आज तुम्हारे जाने के बाद पहली बार तुम्हारे जाने के दर्द को महसूस कर रहा हूँ।

आज मैं फूट फूट कर रोना चाहता हूँ, उस कविता की मौत पर, हमारे प्यार की अधूरी दास्ताँ की मौत पर। लेकिन मैं नहीं रोया आज भी। शायद मैं बुजदिल हूँ इसलिए मैं फिर से इनकार कर रहा हूँ सच्चाई से। मैं नहीं मान सकता, मैंने खो दिया हैं तुम्हें। यक़ीनन मैं डरता हूँ, टूट जाने से। कोई समेटना वाला नहीं हैं ना। वो कविता भी मर गई, जो मेरा आखिरी सहारा थी। इसलिए मैं फिर से लिखूँगा एक और कविता, उस कविता की मौत पर!

जिंदा तो हूँ मैं, बर्बाद ही सही।
तू ना सही, तेरा एहसास ही सही।

Monday 7 March 2016

रोटी की कीमत

दुनिया ने जब आँखें खोलने का मौका दिया;
तब सुलगता सा प्रश्न देखा - रोटी का...

समाज के वर्गों सा मैंने;
आकार बदलता देखा - रोटी का...

अमीर की डायनिंग टेबल पर सोने की थाली में सजी रोटी;
पर गरीब के हाथ में है प्रश्न बिलखता - रोटी का...

शामिल हुआ जब से मैं जिंदगी की दौड़ में;

तब सामने आया प्रश्न कमाना - रोटी का...

स्वप्न सब हवा हुए चक्रवात में रोटी के,
कोलतार की गर्म सड़क पर स्वयं को घसीटता...

अब मै स्वयं सुलग रहा हूँ, तवे की झुलसी हुई रोटी सा...