ये मिसरा नहीं है वज़ीफा मेरा है
खुदा है मुहब्बत, मुहब्बत खुदा है
कहूँ किस तरह मैं कि वो बेवफा है
मुझे उसकी मजबूरियों का पता है
हवा को बहुत सरकशी* का नशा है
मगर ये न भूले दिया भी दिया है
मैं उससे जुदा हूँ, वो मुझ से ज़ुदा है
मुहब्बत के मारो का बज़्ल-ए-खुदा है
नज़र में है जलते मकानो मंज़र
चमकते है जुगनू तो दिल काँपता है
उन्हे भूलना या उन्हे याद करना
वो बिछड़े है जब से यही मशगला* है
गुज़रता है हर शक्स चेहरा छुपाए
कोई राह में आईना रख गया है
कहाँ तू “खुमार” और कहाँ कुफ्र-ए-तौबा
तुझे पारशाओ ने बहका दिया है
* सरकशी – धृष्टता
* मश्ग़ला – मन बहलाने के लिए किया जाने वाला काम
खुमार बाराबंकवी
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