Wednesday 10 February 2016

लम्हों के झरोखों से

1.

मेरी हर दुआ हर अजान में तू है ,
कहते है घर खुदा का जिसे उस मकान में तू है
कैसे पहुंचेगी मेरी परवाज़ तुझ तक ,
मैं हूँ जमीन पर और आसमान पर तू है
मेरी इबादत मेरी मोहब्बत पर इनायत कर,
मेरे दिल और धड़कन के दरम्यान में सिर्फ तू है
मेरी ख़ताएँ नाकाबिले माफ़ी है शायद,
तभी तो बेपरवाह है इस कदर कि मेरे दर्द से अनजान तू है

2.

ऐसा नहीं कि हमको मुहब्बत नहीं मिली, 
तुझे चाहते थे, पर तेरी उल्फत नही मिली, 
मिलने को तो ज़िंदगी में कईं हमसफ़र मिले, 
पर उनकी तबियत से अपनी तबियत नही मिली, 
चेहरों में दूसरों के तुझे ढूंढते रहे दर-ब-दर, 
सूरत नही मिली, तो कहीं सीरत नही मिली, 
बहुत देर से आया था वो मेरे पास यारों, 
अल्फाज ढूंढने की भी मोहलत नही मिली,
तुझे गिला था कि तवज्जो न मिली तुझे,
मगर हमको तो खुद अपनी मुहब्बत नही मिली,
हमे तो तेरी हर आदत अच्छी लगी "फ़राज़"
पर अफ़सोस !! तेरी आदत से मेरी आदत नही मिली..

3.

ज़ख्म क्या होता है ये बताएँगे किसी रोज, 
कमाल की ग़ज़ल तुमको सुनाएंगे किसी रोज, 
थी उन की जिद के मैं जाऊं उनको मनाने, 
मुझे ये वहम था कि वो बुलाएँगे किसी रोज, 
मैंने कभी सोचा भी नहीं था ऐसा कि, 
मेरे दिल को वो इतना दुखायेंगे किसी रोज, 
उड़ने दो इन परिंदों को आजाद फिजाओं में, 
गर होंगे तुम्हारे तो लौट के आएंगे किसी रोज..

4.

आज मुझे फिर इस बात का गुमान हो,
मस्जिद में भजन, मंदिरों में अज़ान हो.
खून का रंग फिर एक जैसा हो,
तुम मनाओ दिवाली ,मैं कहूं रमजान हो.
तेरे घर भगवान की पूजा हो,
मेरे घर भी रखी एक कुरान हो.
तुम सुनाओ छन्द 'निराला' के,
यहाँ 'ग़ालिब' से मेरी पहचान हो.
हिंदी की कलम तुम्हारी हो,
यहाँ उर्दू मेरी जुबान हो.
बस एक बात तुझमे मुझमे वतन की खातिर यहाँ समान हो,
मैं तिरंगे को बलिदान दूँ, तुम तिरंगे पे कुर्बान हो.

5.

रूह के रिश्तों की ये गहराइयाँ तो देखिये,
चोट लगती है हमारे और चिल्लाती है माँ।
चाहे हम खुशियों में माँ को भूल जायें दोस्तों,
जब मुसीबत सर पे आ जाए, तो याद आती है माँ।
हो नही सकता कभी एहसान है उसका अदा,
मरते मरते भी दुआ जीने की दे जाती है माँ।
मरते दम बच्चा अगर आ पाये न परदेस से,
अपनी दोनो पुतलियाँ चौखट पे धर जाती है माँ।
प्यार कहते है किसे और ममता क्या चीज है,
ये तो उन बच्चों से पूँछो, जिनकी मर जाती है माँ।

6.

वो मुझे मेहंदी लगे हाथ दिखा कर रोई, मैं किसी और की हूँ बस इतना बता के रोई!

शायद उम्र भर की जुदाई का ख्याल आया था उसे, वो मुझे पास अपने बैठा के रोई !

कभी कहती थी की मैं न जी पाऊँगी बिन तुम्हारे, और आज ये बात दोहरा के रोई!

मुझसे ज्यादा बिछड़ने का ग़म था उसे, वक़्त-ए -रुखसत वो मुझे सीने से लगा के रोई!

मैं बेक़सूर हूँ कुदरत का फैसला है ये, लिपट कर मुझे बस इतना बता के रोई।

मुझ पर दुःख का पहाड़ एक और टूटा, जब मेरे सामने मेरे ख़त जल के रोई।

मैं तन्हा सा खुद में सिमट के रह गया, जब वो पुराने किस्से सुना के रोई।

मेरी नफ़रत और अदावत पिघल गई एक पल में, वो वेबफ़ा थी तो क्यों मुझे रुला के रोई।

सब गिले-शिकबे मेरे एक पल में बदल गए, झील सी आँखों में जब आँसू के रोई।

कैसे उसकी मोहब्बत पर शक़ करूँ मैं, भरी महफ़िल में वो मुझे गले लगा के रोई !....

7.

तेरे शहर से तो मेरा गाँव अच्छा है
बड़ा भोला बड़ा सादा बड़ा सच्चा है
तेरे शहर से तो मेरा गाँव अच्छा है
वहां मैं मेरे बाप के नाम से जाना जाता हूँ
और यहाँ मकान नंबर से पहचाना जाता हूँ
वहां फटे कपड़ो में भी तन को ढापा जाता है
यहाँ खुले बदन पे टैटू छापा जाता है
यहाँ कोठी है बंगले है और कार है
वहां परिवार है और संस्कार है
यहाँ चीखो की आवाजे दीवारों से टकराती है
वहां दुसरो की सिसकिया भी सुनी जाती है
यहाँ शोर शराबे में मैं कही खो जाता हूँ
वहां टूटी खटिया पर भी आराम से सो जाता हूँ,
यहाँ रात को बहार निकलने में दहशत है
मत समझो कम हमें की हम गाँव से आये है
तेरे शहर के बाज़ार मेरे गाँव ने ही सजाये है,
वह इज्जत में सर सूरज की तरह ढलते है
चल आज हम उसी गाँव में चलते है
............. उसी गाँव में चलते है |

8.

मेरे ज़मीर को इस क़दर निचोड़ा ना करो,
हर मुसलमान को दहशतगर्द से जोड़ा ना करो
हम ने भी गंवाई हैं जाने आजादी के लिए,
तुम हमें शक की नज़र से देखा ना करो
हिन्दू हो,मुसलमान हो,सिख हो के इसाई हो सब एक हैं
तुम हमें मज़हब के तराजू में तोला ना करो
देख कर मासूमों की लाशों को जितना तुम रोए थे,उतना हम भी रोए हैं
तुम हमें हैवानियत की जात से जोड़ा ना करो
ज़रा देखो उस लाचार माँ बीबी और बच्चे को,
मासूमों की लाशों पर सियासात की चादर को लपेटा न करो
वतन के बानी हो अगर ,तो एकता पर विश्वास करो,
मज़हब के नाम पर वोटों को बटोरा न करो
जो करे वतन से गद्दारी वो इंसान नहीं शैतान है ,
तुम मेरे पाक मज़हब को इस शैतानियत से जोड़ा न करो.

9.

जब तिरा नाम लिया दिल ने, तो दिल से मेरे
जगमागाती हुई कुछ वस्ल की रातें निकलीं
अपनी पलकों पे सजाये हुए अश्कों के चिराग़
सर झुकाये हुए कुछ हिज्र की शामें गुज़रीं
क़ाफ़िले खो गये फिर दर्द के सहराओं में
दर्द जो तिरी तरह नूर भी है नार भी है
दुश्मने-जाँ भी है, महबूब भी, दिलदार भी है

10.

जो हुआ वो हुआ किसलिए
हो गया तो गिला किसलिए
काम तो हैं ज़मीं पर बहुत
आसमाँ पर खुदा किसलिए
एक ही थी सुकूँ की जगह
घर में ये आइना किसलिए

11.

तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती
एक ख़्वाब सा देखा है ताबीर नहीं बनती

बेदर्द मुहब्बत का इतना-सा है अफ़साना
नज़रों से मिली नज़रें मैं हो गया दीवाना
अब दिल के बहलने की तदबीर नहीं बनती

दम भर के लिए मेरी दुनिया में चले आओ
तरसी हुई आँखों को फिर शक्ल दिखा जाओ
मुझसे तो मेरी बिगड़ी तक़दीर नहीं बनती

12.

उसके होंठों पर रही जो, वो हँसी अच्छी लगी
उससे जब नज़रें मिलीं थीं वो घड़ी अच्छी लगी
उसने जब हँसते हुए मुझसे कहा` तुम हो मेरे `
दिन गुलाबी हो गए ,ये ज़िन्दगी अच्छी लगी
पूछते हैं लोग मुझसे , उसमें ऐसा क्या है ख़ास
सच बताऊँ मुझको उसकी सादगी अच्छी लगी
कँपकँपाती उँगलियों से ख़त लिखा उसने `खुमार `
जैसी भी थी वो लिखावट वो बड़ी अच्छी लगी

13.

भरी है धूप ही धूप
आँखों में
लगता है
सब कुछ उजला उजला
.
.
.
तुम्हें देखे ज़माने हो गए हैं

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