वो मुझे छोडकर यूँ आगे बढा जाता है
जैसे अब मेरा सफर खत्म हुआ जाता है
बात रोने की लगे और हँसा जाता है
यूँ भी हालात से समझौता किया जाता है
दिल के रिशते ही गिरा देते हैं दीवारें भी
दिल के रिशतों ही को दीवार कहा जाता है
ये मेरी आखरी शब तो नहीं मयखाने में
काँपते हाथों से क्यों ज़ाम दिया जाता है
किस अदालत में सुना जायेगा दावा उनका
जिन उममीदों का गला घोंट दिया जाता है
फासले जिस की रफाकत का मुक़द्दर ठहरे
उस मुसाफिर का कहाँ साथ दिया जाता है
रात आधी से जयादा ही गयी होगी ''वसीम''
“वसीम”
आओ घर लौट लें, नावकत* हुआ जाता है*नावकत – देर
वसीम बरेलवी
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