मजाक मत उड़ाइये..किसी भी गरीब का साहेब..!
वक्त जब गिराता है..तब कोई उठाने नही आता..!!
एक पिता को जब गरीबी मजबूर कर देती है, और वो मेले में अपने बच्चे को रंग बिरंगे खिलौने को ललचाई आंखो से देखते हुये देखता है, तो उसे अपने अतीत की जाने/अनजाने की गयी गलतियाँ याद आ जाती हैं। पीड़ा का एक ज्वार सा उठता है जो उसके पूरे वजूद को डुबो देता है। वह कुछ नहीं कर सकता केवल भरी आंखों से शून्य मे देखता रह जाता है....हताश, निराश ।
आज मेरी आंखे क्यों फिर से, भर आयीं।
कुछ उसकी आरजू थी, कुछ अपनी बेबसी थी॥
उसकी (पिता) जेब मे कुछ पैसे पड़े हैं, वो हिम्मत करके बच्चे से पूछता है, “बेटा कुछ लोगे ?” बेटे को प्रश्न में के साथ ही उत्तर भी मिल जाता है। बेटा सोचते हुये कहता है, नहीं ! ‘“पापा! मुझे कुछ नहीं चाहिए।“
जब बच्चे जल्दी समझदार हो जाते हैं, तो अपनी नाकामियों का दर्द दुगुना हो जाता है। पिता ने बेटे से दुबारा पूछा, “तू कुछ खाता क्यों नहीं?”” बेटा बोला, “पापा ! मैं यहाँ कुछ खाने के लिए आने की जिद नहीं कर रहा था, बल्कि मुझे कुछ खोजना था। पिता की प्रश्नसूचक दृष्टि पुत्र पर टिकी थी। बेटे ने कहना जारी रखा, “मुझे अपनी गरीबी का समाधान ढूंदना था, जिसे अब मैने ढूंढ लिया है।“ पिता ने उत्सुकतावश पूछा, “क्या है समाधान?” “मैं अपनी खुद की दुकान इस मेले मे लगाऊँगा”, बेटे ने कहा।“ मैं समझ गया हूँ की गरीबी तकदीर से नहीं मिटती बल्कि मेहनत करने से मिटती है। मेला उन बच्चों के लिए कुछ खरीदने का अवसर है लेकिन मेरे लिए कुछ बेचने का, जो कुछ भी मेरे पास है।
वहीं एक सज्जन जो काफी देर से पिता पुत्र संवाद सुन रहे थे, पिता के पास आकर बोले, “आपका बेटा तो बहुत समझदार है, किस कक्षा मे पढ़ता है?” पिता ने सुखी हंसी हँसते हुये कहा, “ हाँ ! वो समझदार है! वह ज़िंदगी की किताब पढ़ता है” वहीं से सब सीख लेता है।“ सज्जन बड़े आश्चर्य से पिता की आंखो मे कुछ तलाशते रहे।
ये वक्त (परिस्थितियों) का खेल है दोस्तों, ज़िंदगी मेला देखना (खरीदना) भी सीखा देती है, और समान बेचना भी।
“वक्त ने उसे भी बडा, बना दिया वरना।
वह भी एक खिलता हुआ, गुलाब ही था॥“