Friday 4 May 2018

ना मैं कुछ कह पाई, ना वो कुछ सुन पाये

ना मैं कुछ कह पाई, ना वो कुछ सुन पाये,
ख़ामोशी के दायरे बढ़ते चले गए,
दूर होने की वजह तो ना थी,
पास आने के बहाने घटते चले गए,

जाने क्या चाहती थी मैं
जाने क्या उनके अरमान थे,
हर पल को जीने की ख़्वाहिश थी मेरी
आसमान में उड़ने के उनके ख़्वाब थे,
उनके ख़्वाबों के पंख फैलते रहे
मेरी ख़्वाहिशों के पल सिकुड़ते चले गए,

साथ चलते चलते कब आगे निकल गए वो,
ना उन्हें खबर हुई ना मुझे,
ना उन्होंने मुड़ के देखा ना मैंने पुकारा
कदम उनके यूँ ही उठते रहे,
और आँखों से वो ओझल होते चले गए..

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