Tuesday, 28 April 2020
कभी सोचा नहीं था, ऐसे भी दिन आएँगें
Saturday, 12 May 2018
जब मैं उसके शहर से गुजरा
वक़्त ने फिर एक करवट ली
मुझे उसके शहर से गुज़रने का मौका दिया
उसका शहर उस शहर में
उसकी मौजूदगी का एहसास
उस फ़िज़ा में उसके आस पास
होने का एक डगमगाता सा विश्वास
तरसती आँखें उसके दीदार को बेक़रार थीं
एक बार बस एक बार उसे देखने को बेहाल थीं
लौट आई मेरी नज़रें टकरा कर हर दीवार से
हो ना सका मैं रुबरु दीदार ए यार से
लौट गई थी जिस तरह वो मेरे शहर से
ना चाहते हुए भी लौट आया मैं
उसी तरह उसके शहर से
अब ना किसी से कोई गिला
कोई शिकवा कोई तकरार है
दो दिलों के बीच मजबूरियों की एक दीवार है
समाज के कमज़ोर बंधन
हर रिश्ते को खोखला बनाते हैं
हम जैसे मजबूर इंसान इन बंधनों को
तक़दीर का नाम दे जाते हैं
Friday, 4 May 2018
ना मैं कुछ कह पाई, ना वो कुछ सुन पाये
ना मैं कुछ कह पाई, ना वो कुछ सुन पाये,
ख़ामोशी के दायरे बढ़ते चले गए,
दूर होने की वजह तो ना थी,
पास आने के बहाने घटते चले गए,
जाने क्या चाहती थी मैं
जाने क्या उनके अरमान थे,
हर पल को जीने की ख़्वाहिश थी मेरी
आसमान में उड़ने के उनके ख़्वाब थे,
उनके ख़्वाबों के पंख फैलते रहे
मेरी ख़्वाहिशों के पल सिकुड़ते चले गए,
साथ चलते चलते कब आगे निकल गए वो,
ना उन्हें खबर हुई ना मुझे,
ना उन्होंने मुड़ के देखा ना मैंने पुकारा
कदम उनके यूँ ही उठते रहे,
और आँखों से वो ओझल होते चले गए..