दूर तक फैले हुए खेत
जो दिखाई पड़ते हैं अब रेत,
बीच में खड़ा एक अधीर इंसान
जिसके हैं बेचैन कान,
सुनने के लिए बादलों की गर्ज
ना जाने कबसे बेचारा कर रहा है
ख़ुदा से इसके लिये अर्ज़,
लेकिन ना टपका फिर भी एक कतरा पानी का
चारों तरफ़ छाया हुआ है एक अजीब सन्नाटा,
जिसमेँ से निकला एक दर्दनाक स्वर
मानो जैसे कोई गया है मर,
लेकिन बन गया है यह इंसान एक पत्थर
जिसको किसी की नहीं है फ़िक्र,
उसकी तो निगाहें बिछी हुई हैं दूर आसमान पे
जिसको चीरते हुए धरती पर फैल रही हैं सूर्य की किरणें,
जो उसे तड़पा रही हैं
आखिर कब तक यह दुःख सह पाएगा?
क्या तब तक जब यह धरती
जिस पर कभी छाई हुई थी हरियाली
कर देगी इस इंसान को बरबाद,
और बन जाये इसके लिए उसका शमशान घाट?
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