एक कमरे में बसर करती ये जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
खिलखिलाते से बचपन लिए खिलती
कभी बहकती जवानी लिए जिंदगी
लड़खड़ाता बुढ़ापा लिए लड़खड़ाती
आती जन्म-मरण-परण लिए जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
समय शून्य में अठखेलियों सी जिंदगी
मुट्ठी में बंद कुछ निशानियों को कसती
दीवार टंगी अपनो की स्मृतियां जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
खाली कोना बंद दरवाजे चुप सी सन्नाती,
खुली खिड़की से झांकती आती जिंदगी
दरारों की वजह से दीवारों को यूं दरकती
कभी बड़ी खाइयों को भी पाटती जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
एक कमरे में बसर करती ये जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
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