Saturday 13 August 2016

एक कमरे की जिंदगी

एक कमरे में बसर करती ये जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
 
खिलखिलाते से बचपन लिए खिलती
कभी बहकती जवानी लिए जिंदगी
लड़खड़ाता बुढ़ापा लिए लड़खड़ाती
आती जन्म-मरण-परण लिए जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी

समय शून्य में अठखेलियों सी जिंदगी
मुट्ठी में बंद कुछ निशानियों को कसती
दीवार टंगी अपनो की स्मृतियां जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
  
खाली कोना बंद दरवाजे चुप सी सन्नाती,
खुली खिड़की से झांकती आती  जिंदगी
दरारों की वजह से दीवारों को यूं दरकती
कभी बड़ी खाइयों को भी पाटती जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी

एक कमरे में बसर करती ये जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी

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