Thursday, 30 June 2016

संयुक्त परिवार

वो पंगत में बैठ के निवालों का तोड़ना,
वो अपनों की संगत में रिश्तों का जोड़ना।

वो दादा की लाठी पकड़ गलियों में घूमना,
वो दादी का बलैया लेना और माथे को चूमना।

सोते वक्त दादी पुराने किस्से-कहानी कहती थीं,
आंख खुलते ही माँ की आरती सुनाई देती थी।

इंसान खुद से दूर अब होता जा रहा है,
वो संयुक्त परिवार का दौर अब खोता जा रहा है।

माली अपने हाथ से हर बीज बोता था,
घर ही अपने आप में पाठशाला होता था।

संस्कार और संस्कृति रग-रग में बसते थे,
उस दौर में हम मुस्कुराते नहीं खुलकर हंसते थे।

मनोरंजन के कई साधन आज हमारे पास हैं,
पर ये निर्जीव है, इनमें नहीं साँस है।

आज गरमी में एसी और जाड़े में हीटर हैं,
और रिश्तों को मापने के लिए स्वार्थ का मीटर है।

वो समृद्ध नहीं थे फिर भी दस-दस को पालते थे,
खुद ठिठुरते रहते और कम्बल बच्चों पर डालते थे।

मंदिर में हाथ जोड़ तो रोज सर झुकाते हैं,
पर माता-पिता के धोक खाने होली-दिवाली जाते हैं।

मैं आज की युवा पीढ़ी को इक बात बताना चाहूँगा,
उनके अंत:मन में एक दीप जलाना चाहूँगा।

ईश्वर ने जिसे जोड़ा है उसे तोड़ना ठीक नहीं,
ये रिश्ते हमारी जागीर हैं, ये कोई भीख नहीं।

अपनों के बीच की दूरी अब सारी मिटा लो,
रिश्तों की दरार अब भर लो, उन्हें फिर से गले लगा लो।

अपने आप से सारी उम्र नज़रें चुराओगे,
अपनों के ना हुए तो किसी के ना हो पाओगे।

सब कुछ भले ही मिल जाए पर अपना अस्तित्व गँवाओगे,
बुजुर्गों की छत्रछाया में ही महफूज रह पाओगे।

होली बेमानी होगी दीपावली झूठी होगी,
अगर पिता दुखी होगा और माँ रूठी होगी।

Saturday, 11 June 2016

अन्न का प्रभाव

अन्न का प्रभाव

चावल बेचने वाले एक सेठ की स्टेशन मास्टर से साँठ-गाँठ हो गयी! सेठ को आधी कीमत पर बासमती चावल मिलने लगा!
सेठ ने सोचा कि इतना पाप हो रहा है, तो कुछ धर्म-कर्म भी करना चाहिए!
और एक दिन उसने उन चावल की खीर बनवायी और किसी साधू बाबा को आमंत्रित कर भोजन प्रसाद लेने के लिए प्रार्थना की?
साधू बाबा ने बहुत ही स्वादिष्ट खीर खायी!
दोपहर का समय था, सेठ ने कहाः "महाराज ! अभी आप आराम कीजिए, थोड़ी धूप कम हो जाये तो प्रस्थान कीजियेगा!
साधू बाबा ने उसकी बात स्वीकार कर ली!
सेठ के उस कमरें में जहाँ पर साधू बाबा विश्राम कर रहे थे!वहाँ पर 100-100 रूपये वाली 10 लाख जितनी रकम की गड्डियाँ चादर से ढँककर रखी हुई थी!
साधू बाबा आराम करने लगे!
थोडा सा आराम करनें के उपरान्त साधू बाबा ने देखा कि इतनी सारी नोटौं की गड्डियाँ पड़ी हैं! एक-दो उठाकर झोले में रख लूँगा तो किसको पता चलेगा? और साधू बाबा ने एक गड्डी उठाकर रख ली!
शाम हुई और सेठ को आशीर्वाद देकर चल पड़े!
सेठ दूसरे दिन रूपये गिनने बैठा तो उसमें 1 गड्डी (दस हजार रुपये) कम निकली
सेठ ने सोचा कि महात्मा तो भगवतपुरुष थे, वे क्यों लेंगे? ये काम मेरे नोकरों ने किया है!
नौकरों की धुलाई-पिटाई चालू हो गई, ऐसा करते-करते दोपहर हो गयी!
इतने में साधू बाबा वहाँ आ पहुँचे,तथा अपने झोले में से गड्डी निकाल कर सेठ को देते हुए बोलेः "नौकरों को मत पीटो" ये गड्डी मैं ले गया था!
सेठ ने कहाः "महाराज ! आप क्यों लेंगे ? जब यहाँ नौकरों से पूछताछ शुरु हुई तब कोई भय के मारे आपको दे आया होगा!और आप नौकर को बचाने के उद्देश्य से ही वापस करने आये हैं,क्योंकि साधू तो दयालु होते है । "
साधुः "यह दयालुता नहीं है,मैं सचमुच में तुम्हारी गड्डी चुराकर ले गया था!
साधू ने कहा सेठ ....तुम सच बताओ कि तुमनें कल खीर किसकी और किसलिए बनायी थी ?"
सेठ ने सारी बात बता दी कि स्टेशन मास्टर से चोरी के चावल खरीदता हूँ, उसी चावल की खीर थी!
साधू बाबाः "चोरी के चावल की खीर थी इसलिए उसने मेरे मन में भी चोरी का भाव उत्पन्न कर दिया! सुबह जब पेट खाली हुआ, तेरी खीर का सफाया हो गया तब मेरी बुद्धि शुद्ध हुई कि--
'हे राम.... यह क्या हो गया ?
मेरे कारण बेचारे नौकरों पर न जाने क्या बीत रही होगी, इसलिए तेरे पैसे लौटाने आ गया!
--"इसीलिए कहते हैं कि....
जैसा खाओ अन्न ... वैसा होवे मन!

जैसा पीओ पानी .... वैसी होवे वाणी

Tuesday, 7 June 2016

मुझे कुछ कहना है

मैं उड़ना चाहती हूँ
मेरे पंख काट दिए जाते हैं,
मैं इस दुनिया में आना चाहती हूँ
मुझे गर्भ में ही खत्म कर दिया जाता है,
मैं आगे बढ़ना चाहती हूँ
मेरे रास्ते में मर्यादा की चट्टान खड़ी कर दी जाती है,
मैं अपने सपने पूरे करना चाहती हूँ
मुझे मेरी सीमाएं याद दिलाई जाती हैं,
मैं चार दीवारी की घुटन की सीलन से छुटकारा पाना चाहती हूँ
मुझे सीता का लक्ष्मण रेखा लांघने का परिणाम याद दिलाया जाता है,
मैं स्वतंत्र हो साँस लेना चाहती हूँ,
बिना किसी की इजाज़त लिए
आसमां में बसना, हवा को चूमना चाहती हूँ,
मैं मनुवादी रीतियों से परे होना चाहती हूँ
मुझे पुरुषवादी भय दिखाकर
शुचिता का पाठ पढ़ाया जाता है,
मुझे पैरों की पायल, नाक की नथनी,
हाथों की चूड़ियों, कानों की बालियों जैसी
गिरहों में बांधा जाता है,
क्यों मेरी ज़िन्दगी की सांसों को
कभी पिता तो कभी पति जैसी क़ैद के हवाले किया जाता है,
क्यों मुझे पुरुष कम पशुरूप का आतंक दिखा
गूंगा, बहरा, अंधा रहने को कहा जाता है,
क्यों मुझे मेरी आत्मा को मार, रक्त मांस के
पुतले की तरह जीने को कहा जाता है,
क्यों मुझे मेरी ज़िन्दगी जीने के लिए
चाहे अनचाहे किसी दूसरे को सौंप दिया जाता है,
क्यों मुझे ‘निर्भया’ अपनी इज्ज़त की रक्षा करने की सज़ा भोगनी पड़ती है,
क्यों मुझे ही दोषी साबित कर, अपनी
कुत्सित मानसिकता की पूर्ती हेतु मुझे बलि चढ़ाया जाता है,

क्यों???

Saturday, 21 May 2016

सब कुछ है मेरे पास, बस एक तुझ को छोड़कर

ऐ वक़्त तुम हो किधर?
कई दिनों से तुम दिखे नहीं..
तुम तेज़ भाग रहे हो या मैं धीमे चल रहा हूँ..
शायद मैं ही धीमे चल रहा हूँ..
राह में ख़्वाब मिले, अरमान मिले, आसना भी मिले..
पर तुझे पता है ना तेरे बिना मैं किसी से नहीं मिलता..
तो कैसे तुम बिन उनका एहतराम करूँ?
दौड़ते भागते साँसें फूल सी रही हैं..
कैसे तुम बिन कुछ पल आराम करूँ..

रुक न थोड़ी देर, साथ ही चलते हैं..
गर साथ नहीं चल सकते तो साथ चलना ही सिखा दे..
तुम आखिर जा किधर रहे हो, बस यही दिखा दे..
रुक न थोड़ी देर, साथ बैठते हैं, बातें करते हैं..
तेरे बिना हर एक चीज़ बुरी सी लगती है..
तेरे बिना ज़िन्दगी ही अधूरी सी लगती है..

Saturday, 14 May 2016

एक कर्मचारी का छुट्टी से वापस आने का दर्द

It happens.......

छुट्टी से वापस आने का दर्द ……

घर जाने से पहले ही लौटने का टिकट हूँ बनवाता …

घर जाता हूँ तो मेरा बैग ही मुझे है चिढ़ाता ,
तू एक मेहमान है अब, ये पल पल मुझे बताता. ..!

माँ कहती रहती सामान बैग में फ़ौरन डालो
हर बार तुम्हारा कुछ ना कुछ छुट जाता ........
तू एक मेहमान है अब ये पल पल मुझे बताता ...

घर पंहुचने से पहले ही लौटने की टिकट,
वक़्त परिंदे सा उड़ता जाता ,
उंगलियों पे लेकर जाता हूं गिनती के दिन,

फिसलते हुए जाने का दिन पास आता ......
तू एक मेहमान है अब, ये पल पल मुझे बताता ...

अब कब होगा आना सबका पूछना ,
ये उदास सवाल भीतर तक बिखराता ,
मनुहार से दरवाजे से निकलते तक ,

बैग में कुछ न कुछ भरते जाता ...
तू एक मेहमान है अब, ये पल पल मुझे बताता. ..

जिस बगीचे की गोरैय्या भी पहचानती थी ,
अरे वहाँ अमरुद का पेड़ पापा ने कब लगाया ??
घरके कमरे की चप्पे चप्पे में बसता था मैं ,

आज लाइट्स ,फैन के स्विच भूल हाथ डगमगाता ...
तू एक मेहमान है, अब ये पल पल मुझे बताता ...

पास पड़ोस जहाँ बच्चा बच्चा था वाकिफ ,
बेटा कब आया पूछने चला आता ....
कब तक रहोगे पूछ अनजाने में वो

घाव एक और गहरा देके जाता ...
तू एक मेहमान है अब, ये पल पल मुझे बताता. ..

ट्रेन में तुम्हारे हाथो की बनी रोटियों का
डबडबाई आँखों में आकार डगमगाता ,
लौटते वक़्त वजनी हो गया बैग ,

सीट के नीचे पड़ा खुद उदास हो जाता .....
तू एक मेहमान है अब, ये पल पल मुझे बताता .....

एक कर्मचारी की व्यथा।।।।।।।

Saturday, 7 May 2016

तन्हा दिल तन्हा सफ़र

हर दिन अपने लिए एक जाल बुनता हूँ,
कभी ज़हन, कभी दिल, कभी रूह की सुनता हूँ|

हर रोज़ इम्तिहान लेती है ज़िंदगी,
हर रोज़ मगर मैं मोहब्बत चुनता हूँ|
कभी ज़हन, कभी दिल, कभी रूह की सुनता हू…

बहुत दूर चला आया हूँ कारवाँ से,
तन्हा रास्तों में एक हमसफ़र ढूंढता हूँ|
कभी ज़हन, कभी दिल, कभी रूह की सुनता हूँ…

अंधेरों में तुम्हारा चेहरा साफ़ दिखता है,
तुम सामने होते हो जब आँख मूंदता हूँ|
कभी ज़हन, कभी दिल, कभी रूह की सुनता हूँ…

सिर्फ एहसास ए मोहब्बत बन जाता हूँ,
जब तेरी कमी को मैं सुनता हूँ|
कभी ज़हन, कभी दिल, कभी रूह की सुनता हूँ…

तेरे होते हुए शायद मुमकिन नहीं,
तेरे जाते ही अपनी कलम ढूंढता हूँ|
कभी ज़हन, कभी दिल, कभी रूह की सुनता हूँ…

सब हैरान हैं देख कर मेरा इश्क,
मैं तेरी वफ़ा में ऐसा झूमता हूँ|
कभी ज़हन, कभी दिल, कभी रूह की सुनता हूँ…

दिल में आशियाने की आरज़ू लिए,
मैं शहरों शहरों घूमता हूँ|
कभी ज़हन, कभी दिल, कभी रूह की सुनता हूँ…

Monday, 2 May 2016

हमारी अधूरी कहानी

वक़्त ने फिर एक करवट ली..
मुझे उसके शहर से गुज़रने का मौका दिया..
उसका शहर उस शहर में..
उसकी मौजूदगी का एहसास..
उस फ़िज़ा में उसके आस पास..
होने का एक डगमगाता सा विश्वास..
तरसती आँखें उसके दीदार को बेक़रार थीं..
एक बार बस एक बार उसे देखने को बेहाल थीं..
लौट आई मेरी नज़रें टकरा कर हर दीवार से..
हो ना सका मैं रुबरु दीदार ए यार से..
लौट गई थी जिस तरह वो मेरे शहर से..
ना चाहते हुए भी लौट आया मैं..
उसी तरह उसके शहर से..
अब ना किसी से कोई गिला..
कोई शिकवा कोई तकरार है..
दो दिलों के बीच मजबूरियों की एक दीवार है..
समाज के कमज़ोर बंधन..
हर रिश्ते को खोखला बनाते हैं..
हम जैसे मजबूर इंसान इन बंधनों को..
तक़दीर का नाम दे जाते हैं..
और रह जाती है तो बस आधी अधूरी प्रेम कहानियाँ..

Sunday, 1 May 2016

तेरी चूड़ियों की खनक में बसी है मेरी ज़िन्दगी

माँ की चूड़ियाँ बजती है

माँ की चूड़ियाँ बजती हैं
सुबह सुबह नींद से जगाने के लिये

माँ की चूड़ियाँ बजती हैं
एक एक कौर बना कर मुझे खिलाने के लिये

माँ की चूड़ियाँ बजती हैं
थपकी दे कर मुझे सुलाने के लिये

माँ की चूड़ियाँ बजती हैं
आर्शीवाद और दुआयें देने के लिये..........

हे! ईश्वर सदा मेरी माँ की चूड़ियाँ
इसी तरह बजती रहें खनकती रहें

ये जब तक बजेंगी खनकेंगी
मेरे पापा का प्यार दुलार
मेरे सिर पर बना रहेगा......
वरना तो मैं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं

बहन की चूड़ियाँ बजती हैं

बहन की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरी कमर पर प्यार भरा
धौल जमाने के लिये

बहन की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरे माथे पर चंदन टीका लगाने के लिये

बहन की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरी कलाई पर राखी बाँधने के लिये

बहन की चूड़ियाँ बजती हैं
लड़ने और झगड़ने के लिये

हे! ईश्वर सदा मेरी बहन की चूड़ियाँ
इसी तरह बजती रहें खनकती रहें

ये जब तक बजेंगी साले बहनोई का
रिश्ता रहेगा
और रहेगा भाई बहन का प्यार जन्मों तक..........

पत्नी की चूड़ियाँ बजती हैं

पत्नी की चूड़ियाँ बजती हैं
प्रतीक्षारत हाथों से दरवाजा खोलने के लिये

पत्नी की चूड़ियाँ बजती हैं
प्यार और मनुहार करने के लिये
.
पत्नी की चूड़ियाँ बजती हैं
हर दिन रसोई में
मेरी पसन्द के तरह तरह के
पकवान बनाने के लिये

हे ईश्वर मेरी पत्नी की चूड़ियाँ
इसी तरह बजती रहें खनकती रहें

जब तक ये चूड़ियाँ बजेंगी खनकेंगी
तब तक मैं हूं मेरा अस्तित्व है
वरना, इनके बिना मैं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं

बेटी की चूड़ियाँ बजती हैं

बेटी की चूड़ियाँ बजती हैं
पापा पापा करके ससुराल जाते वक्त
मेरी कौली भरते समय

बेटी की चूड़ियाँ बजती हैं
दौड़ती हुयी आये और मेरे
सीने से लगते वक्त

बेटी की चूड़ियाँ बजती हैं
सूनी आँखों में आँसू लिये
मायके से ससुराल जाते वक़्त.......

बेटी की चूड़ियाँ बजती हैं
रूमाल से अपनी आँख के आँसू
पापा से छिपा कर पोंछते वक़्त

हे! ईश्वर मेरी बेटी की चूड़ियाँ
इसी तरह बजती रहें खनकती रहें

जब तक ये बजेंगी खनकेंगी
मैं उससे दूर रह कर भी
जी सकूंगा......
खुश रह सकूंगा

बहू की चूड़ियाँ बजती हैं

बहू की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरे घर को अपना बनाने के लिये

बहू की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरे दामन को खुशियों से
भरने के लिये

बहू की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरा वंश आगे बढ़ाने के लिये

बहू की चूड़ियाँ बजती हैं
मेरे बेटे को खुश रखने के लिये

हे! ईश्वर मेरी बहू की चूड़ियाँ
सदा इसी तरह बजती रहें खनकती रहें

जब तक ये बजेंगी खनकेंगी, मेरा बुढ़ापा सार्थक है वरना..
इनके बिना तो मेरा जीना ही निष्क्रिय है और निष्काम है..

मुझसे दोस्ती करोगे ??

कोई कवि नहीं हूँ मैं, ना मुझे काव्य रस का ज्ञान है..
मैं तो एक अज्ञानी हूँ, अपने व्यक्तित्व पर ना मुझे अभिमान है..

लिखना मेरा व्यापार नहीं, मैं तो बस कभी कलम उठा लेता हूँ..
जो बात खुद से भी नहीं कह पाता, वो कुछ शब्दों में पिरो देता हूँ..

दिल का बोझ तब कुछ कम सा लगता है, तन्हाई में होने के बाद भी..
अकेले होने का एहसास एक भ्रम सा लगता है..

मैंने तो बस कोरे पन्नों पर, मन की स्याही से चन्द शब्द बिखेर दिए..
कुछ के लिए ये पढ़कर कविता, और कुछ को ये सिर्फ़ शब्दों का ढेर लगे..

मेरी रचनाएँ तो बस मेरी ही कहानी कहती हैं..
जो एहसास ज़ुबान से व्यक्त नहीं हो पाते, वो कविता नामक झरोखे से झाँका करते हैं..

किसी अलग दुनिया में नहीं रहता, ना भावनाओं के सरोवर में गोते खाता हूँ..
ना तन्हाई मेरी संगनी है, ना किसी शोर शराबे से घबराता हूँ..

मैं तो हूँ बस एक सुकून भरे जहां की खोज में, अपने आप को पाने की इच्छा है..
दुनिया को तो जान ना सका, ख़ुद को पहचानने की हसरत है..

कोई कवि नहीं हूँ मैं, ना मुझे काव्य रस का ज्ञान है..
मैं तो एक अज्ञानी हूँ, अपने व्यक्तित्व पर ना मुझे अभिमान है..

मेरी कल्पना एक खूबसूरत ज़िन्दगी

लम्बा सफ़र, थकन ढूंढती थोड़ी सी छाँव..
धूप की तपिश में सुलगते से पाँव..
बड़े दिनों से मन को सुकून की ज़रुरत है..
फिर भी ज़िन्दगी कुछ तो ख़ूबसूरत है..
कितने जतन से चुराया एक लम्हा, समय से..
कि बैठ कुछ मुस्करा लूँगी उसके चले जाने से पहले..
पर फिसल जाना मुट्ठी से, वक़्त की फ़ितरत है..
फिर भी ज़िन्दगी कुछ तो ख़ूबसूरत है..
मन के पंखों ने भरी उड़ान..
सपनों में था बस नीला आसमान..
क्या हो जाता गर राह न रोकता ये तूफ़ान..
खैर, टूटते बनते इरादों की लहर में..
नये सपने भी पैदा हो जाते हैं..
टीस रहती है अधूरे ख़्वाबों की, पर..
नये ख़्वाब देखते रहना अब मेरे मन की एक नई लत है..
चाहे जो भी हो, हाँ फिर भी ज़िन्दगी कुछ तो ख़ूबसूरत है..