फिर वही मैं, एक ख़्वाब और कुछ ख़ामोशी
एक अजनबी शाम की तरह
धुंधलाता हुआ सा तुम्हारा चेहरा
अपने ही टुकड़ों पर मुस्कुराता
एक टूटा हुआ दिल
और उसमें बिखरी पड़ी
तुम्हारी लाज़वाब कहानी
जो मैंने अब तक
गिरते हुए अश्कों से भी छुपाकर रखी है
और फिर भीगी पलकों में
बसे ख़्वाबों के सहारे
तुम्हें देख लेने की,
तुम्हें छू लेने की,
और तुम्हें अपना बना लेने की
मेरी वो नाकाम कोशिश
एक हँसी पर झूठी उम्मीद
जिसके टूटते ही
छा जाती है एक गहरी ख़ामोशी
जिसे तोड़ता है
मेरा बिखरा हुआ अक्स
जो समेटना चाहता है
ज़िन्दगी की सारी ख़ुशियाँ
जीना चाहता है हर वह पल
जिसमें तुम्हारी ख़ुश्बू बसी है
छूना चाहता है हर उस एहसास को
जो तुम्हें छूकर गुज़रता है
समा जाना चाहता है
तुम्हारी रूह की गहराई में
और मैं पुकारता हूँ तुम्हारा नाम
एक ऐसी सदा
जिसे तुम अब सुनना नहीं चाहती
हर शाम का यही नज़ारा होता है
कुछ ठहरे हुए से पलों में
धड़कनें एक घबराये हुए
दिल में सिमट जाती हैं
इंतज़ार की डोर पे लटके हुए
अनगिनत बेचैन जज़्बात होते हैं
हर जाम में गहराई तक बस
एक डूबती हुई नाउम्मीदी
पर मेरे हमनफ़स तुम कभी नहीं आते
रह जाती है एक तन्हाई
फ़ना होने को तरसती
कुछ सांसें
फिर वही मैं,
एक ख़्वाब और कुछ ख़ामोशी
Wednesday, 20 April 2016
मेरी बेचैन ख़ामोशी
Tuesday, 19 April 2016
मेरी कविता और उसका दर्द
आज कुछ लिखने को मन चाहा..
पर क्या लिखूँ कुछ समझ न आया..
सोचा कुछ अच्छा लिखूं, जो हो रहा है सच्चा लिखूं..
इसी उधेड़ बुन में समय बीत गया..
अच्छा खोजने में मै ही उलझ गया..
चलो बुरा ही लिख दूँ, प्याला या सुराही लिख दूँ..
इसी सोच में लिखना दूभर हो गया..
सुनकर ते बातें समय का पहिया ठहर गया..
चलो कुछ घर की लिख दूँ, माता-पिता को लिख दूँ..
दादा-दादी के किस्से लिख दूँ..
या भैया-भाभी का प्यार लिख दूँ..
अरे यहाँ तो हर रिश्ता मतलब का हो गया..
जिसे भी देखो लालच में ही खो गया..
बूढ़े बृद्धाश्रम और जवान मस्ती में..
रिश्तेदारी गई मतलब की बस्ती में..
चलो कुछ यारों की यारी में लिख दूँ..
हो सके तो खेत और क्यारी में लिख दूँ..
यारी भी सब माया में धूल गई..
क्यारी भी सहर में बदल गई..
कुछ भी करने जाता हूँ, मानवता का धोखा है..
अरे भाई ये दुनियाँ, स्वार्थ का खोखा है..
मिट्टी भी हुई सोना और सोने का है रोना..
आँख हुई अन्धी और बहरे कानों का कोना..
किस और जाऊँ मैं, कहाँ रोऊँ अपना रोना..
जगह जगह पर ठग हैं बैठे, दुखी हुआ हर कोना..
किसे सम्हालूँ किसे बचाऊँ, बचा नहीं कोई कोना..
कान्हां की बंसी भी रोती है, राग राग का रोना..
Friday, 15 April 2016
खुली आँखों का ख्वाब या मेरे आवारा जज़्बात
देखता रहा, खुली आँखों से ख्वाब..जहां में फैली हुई..
हैवानियत के मंजरों को..हर पल होते हुए..
कत्ल, चोरी, रहजनी और दुराचार को..सुख-चैन लूटते हाथों से..
मिलती ब्यथाएं अनतुली..थरथराती बुनियादें..
दम बेदम फरियादें..खौफ का एहसास कराती..
खून से लथपथ हवायें..शाम होते ही..
सिमटते सारे रास्ते..मची है होड़ हर तरफ..
धोखा, झूठ, फरेब और बेईमानी की..नेकी की राहों में फैली..
बिरानगीं और तीरगी का बसेरा..पहलू बदल कर ली अंगडाई..
पर न कोई इन्कलाब दिखा..जी रहे हैं सभी यहाँ..
आपसी रंजिसों के साथ..भला कब तक ? ये भी कोई जीना है..
Tuesday, 12 April 2016
एक अधूरी ग़ज़ल
मेरे ये ख़्वाब उनके लिए हैं, मेरा हर ख़यालात उनके लिए है...
मेरे ये शब्द उनके लिए हैं, मेरी शायरी की सौगात उनके लिए है...
मेरी ये मोहबत उनके लिए है, मेरे दिल के सारे जज्बात उनके लिए है..
मेरी यादो का शहर उनके लिए है, मेरी उनसे मुलाकात उनके लिए है..
मेरा जीना मरना उनके लिए है, मेरी सारी कायनात उनके लिए है..
मेरे दिल की हर धड़कन मेरी सांसो से कहती है बस यही,
कि मेरी हर बात उनके लिए है, बस उनके ही लिए है....
Monday, 11 April 2016
मेरी तन्हाई और तेरी जुदाई
अपने दिल के सनमखाने के हर जर्रे पे, आँसुओं से तेरे नाम लिखे हैं हमने..
ये ख़ामोशी और दर्द के अफ़साने, कोरे कागज़ पे सजाए हैं हमने..
ये जो पत्थर के बेदिल मकान हैं, इस दुनिया की गलियों के श्मशान हैं..
तन्हाई के जिंदादिली के साये में, तुमको ख़यालों में बसाए हैं हमने..
राहों के मुकद्दर में कई मुसाफिर हैं, पर मेरी पगडंडियों पे तू अकेली है..
इस भीड़ भरी अंधेर नगरी में, तेरे नूर के माहताब जलाए हैं हमने..
मेरी दीवानगी छलक न जाए आंखों से, हम हर फुगां को दिल में दबा लेते हैं..
तुम मेरे दर्द को मिटा दोगी एक दिन, इसी उम्मीद में जख्म संभाले हैं हमने..
ये जख्म, ये दर्द, ये तन्हाई और तुम
अपने दिल के सनमखाने के हर जर्रे पे
आँसुओं से तेरे नाम लिखे हैं हमने
ये ख़ामोशी और दर्द के अफ़साने
कोरे कागज़ पे सजाए हैं हमने
ये जो पत्थर के बेदिल मकान हैं
इस दुनिया की गलियों के श्मशान हैं
तन्हाई के जिंदादिली के साये में
तुमको ख़यालों में बसाए हैं हमने
राहों के मुकद्दर में कई मुसाफिर हैं
पर मेरी पगडंडियों पे तू अकेली है
इस भीड़ भरी अंधेर नगरी में
तेरे नूर के माहताब जलाए हैं हमने
मेरी दीवानगी छलक न जाए आंखों से
हम हर जज़्बात को दिल में दबा लेते हैं
तुम मेरे दर्द को मिटा दोगी एक दिन
इसी उम्मीद में जख्म संभाले हैं हमने
Saturday, 9 April 2016
एक अधूरी तलाश
ज़िन्दगी की किताब में मोहब्बत का पन्ना अभी भी कोरा ही है
कलम भी है पास मेरे बस लिखने को स्याही ढूंढ रहा हूँ,
अश्कों का लिखा अब दिखाई भी नहीं देता
चंद अल्फ़ाज़ के लिए जिगर का लहू ढूंढ रहा हूँ मैं,
कसमों और वादों से अब ये कलम ना उठेगी
लिखने को चंद अल्फ़ाज़ सच्चे दिल की आवाज़ ढूंढ रहा हूँ मैं,
ज़िंदगी के हर एक मोड़ की कोई ना कोई मंज़िल तो है ही
रास्ते भी हैं और उसपे चलने का हौंसला भी है
बस एक हमसफ़र ढूंढ रहा हूँ मैं,
आँखों पे पट्टी बांधे बांधे कदमों के निशां ढूंढ रहा हूँ मैं,
हाथ आगे बढ़ाने से अब ये कदम ना उठेंगे
चलने को साथ रास्तों पे
कदम से कदम मिलाने का सुर और ताल ढूंढ रहा हूँ मैं..
Monday, 4 April 2016
मेरी ज़िन्दगी की किताब के कुछ फटे हुए पन्ने
मेरी ज़िन्दगी एक क़िताब है..
हर पन्ने पर एक राज़ है..
हर कोई इसे पढ़ना चाहता है..
और आता नहीं कोई बाज़ है..
हर पन्ने की लिखावट अलग है..
जो पढ़ पाया उस पर नाज़ है..
हर पन्ना खोलता एक ख़्वाब है..
और हर ख़्वाब ज़िन्दगी का जवाब है..
मेरी क़िताब गले से लगा ली जिसने..
वो शख्स ही मेरे दिल का नवाब है..
Sunday, 3 April 2016
खामोशियाँ गुनगुनाने लगी
घर के दरवाज़े पर ठहरा हुआ, तेरी आहट का साया है..
कच्ची नींद से अक्सर रात में, इसने हमें जगाया है..
खिड़की के उस शीशे पर, आज भी तेरी सांसें जमी हैं..
ये वहम है हमारा या महज़, तेरी कमी है?
छत के उस कोने से भी, हमारा वास्ता ज़रा कम है..
सूखे पत्तों के साथ वहाँ, बिखरे पुराने कुछ ग़म हैं..
तुझे तलाश करूँ तो कैसे बता, तू मुझमें ही तो रहता है..
एक अश्क भी ज़ाया न हो, उनमें, तेरा एहसास बहता है..
लिख लिख कर अब तो लफ़्ज़ों की भी, एड़ियाँ घिस गयी हैं..
ख़ामोशी की ज़ुबां समझना, इतना आसान नहीं है..