Sunday 3 April 2016

खामोशियाँ गुनगुनाने लगी

घर के दरवाज़े पर ठहरा हुआ, तेरी आहट का साया है..
कच्ची नींद से अक्सर रात में, इसने हमें जगाया है..
खिड़की के उस शीशे पर, आज भी तेरी सांसें जमी हैं..
ये वहम है हमारा या महज़, तेरी कमी है?
छत के उस कोने से भी, हमारा वास्ता ज़रा कम है..
सूखे पत्तों के साथ वहाँ, बिखरे पुराने कुछ ग़म हैं..
तुझे तलाश करूँ तो कैसे बता, तू मुझमें ही तो रहता है..
एक अश्क भी ज़ाया न हो, उनमें, तेरा एहसास बहता है..
लिख लिख कर अब तो लफ़्ज़ों की भी, एड़ियाँ घिस गयी हैं..
ख़ामोशी की ज़ुबां समझना, इतना आसान नहीं है..

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