फिर वही मैं, एक ख़्वाब और कुछ ख़ामोशी
एक अजनबी शाम की तरह
धुंधलाता हुआ सा तुम्हारा चेहरा
अपने ही टुकड़ों पर मुस्कुराता
एक टूटा हुआ दिल
और उसमें बिखरी पड़ी
तुम्हारी लाज़वाब कहानी
जो मैंने अब तक
गिरते हुए अश्कों से भी छुपाकर रखी है
और फिर भीगी पलकों में
बसे ख़्वाबों के सहारे
तुम्हें देख लेने की,
तुम्हें छू लेने की,
और तुम्हें अपना बना लेने की
मेरी वो नाकाम कोशिश
एक हँसी पर झूठी उम्मीद
जिसके टूटते ही
छा जाती है एक गहरी ख़ामोशी
जिसे तोड़ता है
मेरा बिखरा हुआ अक्स
जो समेटना चाहता है
ज़िन्दगी की सारी ख़ुशियाँ
जीना चाहता है हर वह पल
जिसमें तुम्हारी ख़ुश्बू बसी है
छूना चाहता है हर उस एहसास को
जो तुम्हें छूकर गुज़रता है
समा जाना चाहता है
तुम्हारी रूह की गहराई में
और मैं पुकारता हूँ तुम्हारा नाम
एक ऐसी सदा
जिसे तुम अब सुनना नहीं चाहती
हर शाम का यही नज़ारा होता है
कुछ ठहरे हुए से पलों में
धड़कनें एक घबराये हुए
दिल में सिमट जाती हैं
इंतज़ार की डोर पे लटके हुए
अनगिनत बेचैन जज़्बात होते हैं
हर जाम में गहराई तक बस
एक डूबती हुई नाउम्मीदी
पर मेरे हमनफ़स तुम कभी नहीं आते
रह जाती है एक तन्हाई
फ़ना होने को तरसती
कुछ सांसें
फिर वही मैं,
एक ख़्वाब और कुछ ख़ामोशी
Wednesday 20 April 2016
मेरी बेचैन ख़ामोशी
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