Friday, 15 April 2016

खुली आँखों का ख्वाब या मेरे आवारा जज़्बात

देखता रहा, खुली आँखों से ख्वाब..जहां में फैली हुई..

हैवानियत के मंजरों को..हर पल होते हुए..

कत्ल, चोरी, रहजनी और दुराचार को..सुख-चैन लूटते हाथों से..

मिलती ब्यथाएं अनतुली..थरथराती बुनियादें..

दम बेदम फरियादें..खौफ का एहसास कराती..

खून से लथपथ हवायें..शाम होते ही..

सिमटते सारे रास्ते..मची है होड़ हर तरफ..

धोखा, झूठ, फरेब और बेईमानी की..नेकी की राहों में फैली..

बिरानगीं और तीरगी का बसेरा..पहलू बदल कर ली अंगडाई..

पर न कोई इन्कलाब दिखा..जी रहे हैं सभी यहाँ..

आपसी रंजिसों के साथ..भला कब तक ? ये भी कोई जीना है..            

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