Tuesday 19 April 2016

मेरी कविता और उसका दर्द

आज कुछ लिखने को मन चाहा..
पर क्या लिखूँ कुछ समझ न आया..
सोचा कुछ अच्छा लिखूं, जो हो रहा है सच्चा लिखूं..
इसी उधेड़ बुन में समय बीत गया..
अच्छा खोजने में मै ही उलझ गया..
चलो बुरा ही लिख दूँ, प्याला या सुराही लिख दूँ..
इसी सोच में लिखना दूभर हो गया..
सुनकर ते बातें समय का पहिया ठहर गया..
चलो कुछ घर की लिख दूँ, माता-पिता को लिख दूँ..
दादा-दादी के किस्से लिख दूँ..
या भैया-भाभी का प्यार लिख दूँ..
अरे यहाँ तो हर रिश्ता मतलब का हो गया..
जिसे भी देखो लालच में ही खो गया..
बूढ़े बृद्धाश्रम और जवान मस्ती में..
रिश्तेदारी गई मतलब की बस्ती में..
चलो कुछ यारों की यारी में लिख दूँ..
हो सके तो खेत और क्यारी में लिख दूँ..
यारी भी सब माया में धूल गई..
क्यारी भी सहर में बदल गई..
कुछ भी करने जाता हूँ, मानवता का धोखा है..
अरे भाई ये दुनियाँ, स्वार्थ का खोखा है..
मिट्टी भी हुई सोना और सोने का है रोना..
आँख हुई अन्धी और बहरे कानों का कोना..
किस और जाऊँ मैं, कहाँ रोऊँ अपना रोना..
जगह जगह पर ठग हैं बैठे, दुखी हुआ हर कोना..
किसे सम्हालूँ किसे बचाऊँ, बचा नहीं कोई कोना..
कान्हां की बंसी भी रोती है, राग राग का रोना..

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