Wednesday 9 March 2016

मेरी यादों की रद्दी

कविता की मौत पर

उस शाम जब तुम मिली थी आखिरी बार, तुमने वादा किया था फिर कभी ना मिलने का। तुम्हारे जाने के बाद भी वही बैठा रहा था मैं, जहाँ छोड़ कर चली गई थी तुम मुझे। कितनी ही देर वहीं चौपाटी पर, पानी में पैर डालकर बैठा रहा था मैं ख़ामोश।

एकटक पानी को देखे जा रहा था, बनती लहरों के साथ टूटते सपने डूबते जा रहे थे। मैं बचाना चाहता था। पर कैसे बचाता, और किसे बचाता? एक मैं था जिसे तैरना नही आता, एक वो था जो डूबना चाहता था। डूबने दिया मैंने उसे, अपनी आँखों के सामने। हर एक सपने की मौत पर कोई रो रहा था, यक़ीनन वो मैं तो नही था। वो तो कोई आशिक था एक लड़की का, जिसकी खुशबू हवाओ में उसके जाने के बाद भी महसूस हो रही थी।

रात की 10 बज चुके थे। चौपाटी के गार्ड ने मुझे देखा। और बिना कुछ बोले डांटने लगे। अगर आज मैं दुखी न होता तो शायद लड़ भी जाता। तुम्हे मालूम हैं ना मेरा फ़िज़ूल का गुस्सा। पर मैंने कुछ भी नही कहा। कहता भी तो क्या? उनको लगा होगा, कोई जान देने आया हैं। वैसे गलत थोड़े ही लगा था, जान देने ही तो आया था मैं।

मौत नहीं बल्कि ज़िन्दगी ही मेरी जान लेकर चली गई, और किसी को मालूम तक नहीं। शायद ज़िन्दगी को भी नहीं।

उस शाम वहीं पर बैठे बैठे एक कविता लिखी थी। मेरी सबसे अच्छी कविता तो नहीं पर सबसे करीब जरुर थी। याद हैं मुझे उस शाम में रोया नहीं था। आँसू आँखों में भरे थे पर निकले नहीं। बस लिखता गया था जो कुछ भी याद आता जा रहा था। सारा दर्द उस कविता के भीतर उतार दिया था।

तुम्हारे जाने के बाद कई बार उसे पढ़ा मैंने। उसमे कुछ भी नहीं बदला। वो अधूरी लिखी या पूरी? मालूम नहीं। पर उस को पढ़कर पूरा महसूस किया करता हूँ मैं खुद को।

तुम्हे तो पता ही हैं, मैं कितना केयरलेस हूँ। आज जब उस कविता को मै ब्लॉग पर सेव करने वाला था तो ऑल सेलेक्ट करने के बाद, कॉपी की जगह पेस्ट हो गई। मतलब उस की जगह किसी ओर ने ले ली।

जैसे मेरी जगह ले ली हैं किसी और ने। हाँ मैं बन गया था वो कविता जो मुझको याद नहीं। और मेरी जगह लिखा जा चुका था 'कोई भी'। हाँ उस 'कोई भी' से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। फ़र्क पड़ता हैं तो बस इस से वो 'कोई भी' मैं नहीं था।

खुद को भूलने का एहसास मुझे इतना डरा देगा, मैंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था। मैं खुद को याद करना चाहता था। उस पल मेरे हाथ पैर ही सुन्न हो गये। मेरे दिमाग में बार बार एक ही लाइन आ रही थी। उस कविता की पहली लाइन मेरे दिमाग में आखिरी लाइन थी:

"आखिर तुम भी चली गई।"

मैंने बहुत सोचा, बहुत देर तक सोचा, पर कुछ याद नहीं आया। पर आँखों में कुछ नमीं सी आ गई। दिल में इतना गहरा दर्द उठा, जैसे मैंने तुझे फिर से खोया हो। उस पल महसूस हुआ किसी को खोने से ज्यादा मुश्किल तो किसी को खोने का एहसास हैं। मैंने तुम्हें खो दिया था, तुम्हारे एहसास को नहीं। शायद क़ैद कर लिया था मैंने तेरे एहसास को उस कविता में। और आज वहाँ से भी चला गया था तेरा एहसास।

इतना दर्द तो तब भी नहीं हुआ जब तुम छोड़ कर गई थी। आज तुम्हारे जाने के बाद पहली बार किसी को खोने का दर्द महसूस कर रहा हूँ। आज तुम्हारे जाने के बाद पहली बार तुम्हारे जाने के दर्द को महसूस कर रहा हूँ।

आज मैं फूट फूट कर रोना चाहता हूँ, उस कविता की मौत पर, हमारे प्यार की अधूरी दास्ताँ की मौत पर। लेकिन मैं नहीं रोया आज भी। शायद मैं बुजदिल हूँ इसलिए मैं फिर से इनकार कर रहा हूँ सच्चाई से। मैं नहीं मान सकता, मैंने खो दिया हैं तुम्हें। यक़ीनन मैं डरता हूँ, टूट जाने से। कोई समेटना वाला नहीं हैं ना। वो कविता भी मर गई, जो मेरा आखिरी सहारा थी। इसलिए मैं फिर से लिखूँगा एक और कविता, उस कविता की मौत पर!

जिंदा तो हूँ मैं, बर्बाद ही सही।
तू ना सही, तेरा एहसास ही सही।

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