Tuesday, 10 April 2018

ना वो समझ सके ना हम

कैसा कर्ज़दार हूँ के सूद लिए साहुकार ढूँढता हूँ,
जल रहा हूँ अंदर और पैरों के नीचे अँगार ढूँढता हूँ..

ना शहर बचा, ना घर और ना घर में रहने वाले,
तन्हाई की धूप में सिर छुपाने को दीवार ढूँढता हूँ..

एक मुद्दत गुज़र गई है यूँ तन्हा मुझको जीते हुए,
जो रुखसती में दिया था उसने वो इंतज़ार ढूँढता हूँ..

अपनों के शहर में आखिर अपना कुछ भी नहीं,
बेगानों की महफ़िल में बचपन का यार ढूँढता हूँ..

वक्त से गुम हुए हैं मेरे कई साज़-ओ-सामान,
इस बदलाव की आँधी में अपना गुबार ढूँढता हूँ..

जिनके सीनों में भी अब कोई हरकत नहीं होती,
मैं उनकी आँखों में अपने लिए प्यार ढूँढता हूँ..

इन वीरानों में कहीं दब के रह गई है वफ़ा,
जो हुआ करता था मेरा वो गुलज़ार ढूँढता हूँ..

आधे रास्ते तक पहुँचा हुआ एक मुसाफिर हूँ,
खंजर से चोट खा चुका अब तलवार ढूँढता हूँ..

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