ऐ जज़्बा-ए-दिल ग़र मैं चाहूँ, हर चीज़ मुकाबिल आ जाए..
मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए..
ऐ दिल की ख़लिश, चल यूँ ही सही, चलता तो हूँ उनकी महफ़िल में..
उस वक़्त मुझे चौंका देना जब रंग पे महफ़िल आ जाए..
ऐ रहबर-ए-कामिल, चलने को तैयार तो हूँ पर याद रहे..
उस वक़्त मुझे भटका देना जब सामने मंज़िल आ जाए..
हाँ याद मुझे तुम कर लेना, आवाज़ मुझे तुम दे देना..
इस राह-ए-मोहब्बत में कोई दरपेश जो मुश्किल आ जाए..
अब क्यूँ ढूँढूं वो चश्म-ए-करम, होने दे सितम बाला-ए-सितम..
मैं चाहता हूँ ऐ जज्बा-ए-ग़म, मुश्किल पस-ए-मुश्किल आ जाए..
इस जज्बा-ए-दिल के बारे में इक मशवरा तुमसे लेता हूँ..
उस वक़्त मुझे क्या लाजिम है, जब तुझ पे मेरा दिल आ जाए..
ऐ बर्क-ए-तज़ल्ली, क्या तू ने मुझ को भी मूसा समझा है..
मैं तूर नहीं जो जल जाऊँ जो चाहे मुकाबिल आ जाए..
आता है जो तूफां आने दो, कश्ती का खुदा खुद हाफ़िज़ है..
मुश्किल तो नहीं इन मौजों में, बहता हुआ साहिल आ जाए..
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