Wednesday 10 April 2019

चंचल-बेचैन मन को शांत कैसे करें?

प्रश्न- बहुत विचार चलते हैं, बेचैनी रहती है।
मन का स्वभाव
विचारों की भीड़, विचारों का शोरगुल
मन का स्वभाव ही चंचल है।
वह कभी यहां, कभी वहां भागेगा
स्थिर होना उसका स्वभाव नहीं है।
अब कोई कहे कि सूरज बहुत गर्म है !
बताइये इसको ठण्डा करने के लिए मैं क्या करूं?
क्या ऐसा संभव है?
गर्म होना सूरज का स्वभाव है !
हां, सही प्रश्न क्या होगा?
हम यह पूछ सकते हैं कि बहुत तेज धूप पड़ रही है...बड़ी गर्मी है !
48 डिग्री टेम्परेचर है..जून का महीना है।
हम कहां छाया वाली जगह पाएं?
यह सही सवाल है।
आप से कौन कह रहा है कि लगातार आप धूप में खड़े रहो।
है गर्मी... तो रहने दो।
तुम अपने घर के भीतर आ सकते हो..तुम पंखा चला सकते हो | तुम कूलर और ए.सी. चला सकते हो।
सूरज को ठण्डा नहीं कर सकते
लेकिन तुम अपने कमरे को ठण्डा कर सकते हो।
तुम जगह बदल सकते हो
छाया वाला स्थान खोज लो।
कभी बरसात हो रही है, मूसलाधार बारिश हो रही है।
तब आप यह नहीं कहते- हम बदलों को कैसे मना करें?
कि रुक जाओ, बारिश ना करो।
ऐसा कैसे होगा?
क्या बादल हमसे पूछकर बरस रहे हैं? क्या हमारे कहने से रुकेंगे?
लेकिन इतना तो कर सकते हैं कि
हम उस स्थान में पहुंच जाएं, जहां बारिश का प्रभाव नहीं है।
हम अपना छाता खोल लें कम से कम..
इतना तो किया जा सकता है।
अतः यह मत पूछिए कि मन स्थिर नहीं होता, कैसे स्थिर करें?
ऐसा नहीं होगा।
ना हम बादलों को वर्षा करने से रोक सकते, ना हम सूरज को ठण्डा कर सकते,
ना हम मन को स्थिर कर सकते।
फिर हम क्या कर सकते हैं?
हम उस जगह से हट सकते हैं जहां बेचैनी है, जहां तनाव है, जहां अशांति है, जहां परेशानी है।
हमारा होना- सिर्फ मन ही नहीं है !
हमारे होने के चार आयाम हैं।
सबसे पहले तन - फिजिकल बॅाडी,
फिर मन - माइंड !
फिर हृदय, हार्ट, भावनाओं का स्थल
और चौथी- हमारी आत्मा।
मन में और हृदय में सदा ऊहा-पोह चलती रहती है।
मन में विचार परेशान करते हैं..हृदय में भावनाओं का आना-जाना तंग करता है।
कभी प्रेम भावना आ गई..कभी क्रोध आ गया |
कभी कठोरता आ गई, कभी करुणा आ गई। कभी दोस्ती है, कभी दुश्मनी है।
निरंतर बदल रही हैं भावनाएं।
कोई भावना ज्यादा देर नहीं टिकती।
जैसे विचार क्षणिक हैं.. वैसी ही भावनाएं हैं।
विचार से थोड़ा लंबा टिकती हैं।
मानो हवा का झोंका है आया एक खिड़की से दूसरी खिड़की से निकल जाता है।
बचता कुछ भी नहीं।
आज जिन्हें आप अपना दुश्मन कहते हैं
जिनसे आपको सख्त घृणा है
जरा याद कीजिए ये वही लोग हैं, जो आपके बड़े घने दोस्त थे।
मित्रता, शत्रुता में बदल गई।
इतना प्रेम था, लगाव था जिनसे, आज उनसे नफरत पैदा हो गई !
इससे यह भी समझ लो कि
आज आप जिन्हें अपना मित्र कह रहे हो ये भविष्य में होने वाले शत्रु हैं।
भावनाएं बदल रही हैं। आप क्या करोगे? आपके वश में नहीं है भावनाएं..
किसी से प्रेम हो गया वह आपके वश में नहीं था।
किसी पर क्रोध आ गया.. वह भी आपके वश में नहीं था।
फिर क्या किया जा सकता है?
इन चार आयामो में से
ये दो चंचल आयाम हैं- मन और हृदय, माइंड एंड हार्ट, दिल और दिमाग- दोनों चंचल हैं।
यहां तो स्थिरता नहीं हो सकती।
हम या तो फिजिकल बॅाडी के तल पर आ जाएं
जहां हमारी कर्मेद्रियां हैं, ज्ञानेंद्रियां हैं।
उनके प्रति अपनी संवेदनशीलता को बढ़ा लें।
तो ध्यान का एक उपाय यह है
कि अपनी इंद्रियों के प्रति संवेदनशील बनो।
जब चाय पी रहे हो जरा चाय की खुश्बू को महसूस करो।
थोड़ी धीमी-गहरी सांस लो
एक-एक चुस्की चाय का मजा लो उसके स्वाद का आंनद लो।
उस समय जब तुम चाय की खुश्बू,
स्वाद और गर्माहट का अहसास कर रहे हो तुम मन से दूर हट गए।
मन में चल रहे होंगे विचार चलते रहें...
किंतु तुम वहां से खिसक गए।
तुमने अपनी सारी ऊर्जा दूसरी तरफ डाल दी।
तुम सुगंध और स्वाद लेने में उत्सुक हो गए।
सुबह-सुबह सूरज निकला है
रंग-बिरंगे बादल छाये हैं,
ठण्डी हवाएं हैं..और कुनकुनी धूप चेहरे पर पड़ रही है।
जरा इस सौंदर्य का मजा लो।
अपनी आंखों में सारी जीवन ऊर्जा को उलीच दो
और तुम हैरान होगे कि..अद्भुत शांति छा गई।
यह ठण्डी हवा का स्पर्श... तुम अपनी त्वचा के प्रति संवेदनशील बने।
कुनकुनी धूप की किरणें
पंछियों की आवाजें सुनाई पड़ रहीं..तुम गौर से सुन रहे।
जरा आंख बंद करके सुनो।
और तुम हैरान हो जाओगे कि तुमने तो सिर्फ अपने कानों पर ध्यान दिया
और चित्त शांत हो गया।
हमने चित्त के साथ कुछ नहीं किया
हम वहां से शिफ्ट हो गए..हमने जगह बदल ली।
तो एक उपाय है अपने शरीर के प्रति अपनी संवेदनयशीलता को,..जागरूकता को बढ़ाओ।
ध्यान की बहुतेरी विधियां, मेडिटेशन टेक्नोलोजी इसी पर आधारित होती हैं।
जब चल रहे हो तो बस, वर्तमान के क्षण में चलो |
आगे-पीछे का सब भूल कर। पैर उठा, फिर नीचे गया, जमीन को छुआ..
फिर दूसरा पैर उठा..हाथ भी हिल रहे हैं।
अगर आप इस चलने की क्रिया के प्रति सजग हो गए तो ध्यान घटित हो जाएगा..चित्त शांत हो जाएगा।
हमने चित्त के साथ कुछ नहीं किया।
हमने क्या विधि अपनाई - हम उस जगह से हट गए जहां चंचलता है।
एक दूसरा उपाय है:
अपने भीतर, अपनी आत्मा में..अपनी चेतना में रमो।
वहां जो दृष्टा चैतन्य है- साक्षी
उसमें ओंकार का नाद गूंज रहा है
सूक्ष्म प्रकाश छाया हुआ है।
अगर तुम वहां भीतर देखने-सुनने लगे
तब तुम मन के विचारों के शोर से
और हृदय की भावनाओं के ऊहा-पोह से दूर निकल गए।
सब शांत हो जाएगा।
ओंकर सुनते हुए घनी शांति छा जाएगी। समाधि लग जाएगी।
इसमें भी हमने मन और हृदय के साथ कुछ नहीं किया !
हम केवल वहां से शिफ्ट हो गए- दूसरी जगह।
मुझे याद आता है कि - बचपन में मेरे गांव में एक नदी बहती है..
उस नदी के किनारे..कुछ मछुआरे, कुम्हार, धोबी आदि
भिन्न-भिन्न किस्म के लोग वहां रहते हैं।
हर साल बाढ़ आती..उनकी झोपड़ी बह जाती..जन-धन की बड़ी हानि होती।
उनके सामान का नुकसान हो जाता,
कभी जानवर बह गए,
कभी कोई बच्चा डूब गया, क्योंकि..अचानक रात को बाढ़ आ जाती।
हमेशा नुकसान होता..झोपड़ी बह जाती, टूट जाती।
तब नगरपालिका वाले उन्हें कहीं दूर शिफ्ट करते।
फिर दो-तीन महीने बाद..बाढ़ समाप्त हो जाने पर वे फिर वहीं झोपड़ी बनाते। फिर कच्ची झोपड़ियां बनतीं।
जब मैं छोटा था..मेरे दो-तीन मित्र थे उन्हीं परिवारों में रहने वाले।
उनकी तकलीफ देखकर..मुझे बड़ी उदासी पकड़ती थी।
फिर मुझे यह ख्याल आता था कि..ये यहीं क्यों रहते हैं?
ये थोड़ा-सा ही दूर वहां से खिसक जाएं..जहां बाढ़ नहीं पहुंचती।
सबको पता है कि कहां तक नदी की बाढ़ आती है..तो उस क्षेत्र में ही क्यों रहना?
मैं उन लोगों से कहता था कि..तुम लोग दूसरी जगह झोपड़ी बनाओ..इतनी सारी जमीन पड़ी है।
छोटे-छोटे गांव में जमीन की कमी थोड़ी है!
वे कहते थे- ‘नहीं। यहां से कैसे जाएंगे?
हमारे पूर्वज यहीं रहते आए हैं।
पता नही, शायद...तुम्हारे पूर्वज भी नालायक थे, तुम भी नालायक हो।
फिर मैं थोड़ा बड़ा हुआ..स्कूल में जब पढ़ता था..छठवीं-सातवीं क्लास में..
मैंने भूगोल में पढ़ा कि उत्तरी ध्रुव में..
जहां -60 डिग्री टेम्परेचर रहता है
वहां एस्किमो रहते हैं।
उनका घर भी बर्फ का बना होता है
बर्फ के पत्थरों को तोड़-तोड़ के ईंट जैसा बनाकर उनको आपस में जोड़ लेते हैं।
वहां और कुछ है ही नहीं खाने-पीने के लिए बड़ी त्राहि-त्राहि है।
हरियाली नाम की कोई चीज नहीं।
कई मीटर बर्फ जमा है..जो आज तक कभी पिघला नहीं।
पेड़-पौधे कहां उगेंगे?
उनके जीवन में कठिनाइयां ही कठिनाइयां हैं।
फिर पढ़ा मैंने रेगिस्तानों के बारे में
जहां भी देखिये पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची रहती है।
बेचारे गरीब लोग हैं..कुछ ज्यादा उनके पास है नहीं..सबसे बड़ी सम्पत्ति उनके पास ऊंट हैं।
वही उनकी यात्रा के साधन हैं..वही उनके वाहन हैं।
मगर कभी इतनी प्यास लगती है कि ऊंट को मार कर उसके पेट से पानी निकाल के पी लेते हैं।
सामान्यतः यह बात सोच के ही घिन उत्पन्न होती है-
मरे हुए जानवर के पेट से पानी निकाल के पीना !
फिर मैंने कल्पना की कि कैसी प्यास होगी..जरा ये तो सोचो !
और ऊंट को मारना कोई सस्ता काम नहीं, वे गरीब लोग हैं।
उनके पास सबसे महंगी चीज ऊंट ही है।
ऊंट का मर जाना बहुत बड़ी आर्थिक हानि है उनकी।
कैसी भयंकर प्यास, कैसी तड़फ लगती होगी!
फिर मुझे ख्याल आया कि..वे लोग वहां से हटते क्यों नहीं?
क्या उनको पता नहीं कि..दुनिया बहुत बड़ी है।
वे रेगिस्तान में ही क्यों रहते हैं?
एस्किमो वही क्यों रहते हैं बर्फ में? इतनी बड़ी दुनिया है..कही भी चले जाएं।
आज से बीस साल पहले..मैंने ध्यान शिविर लेना शुरू किया।
लोगो को समझाना आरंभ किया कि कैसे शांत हों, कैसे आनन्दित हों? कैसे प्रसन्न हों?
धीरे-धीरे मुझे समझ में आ गया
कि..सब जिद्दी हैं :)
वे वही रहेंगे। रोना रोएंगे, कष्ट भुगतेंगे पर हटने को तैयार नहीं हैं।
तुम जिस चंचल मन की शिकायत कर रहे हो
तुम से कौन कहता है कि..वही अड्डा जमा कर रहो?
थोड़ा खिसकना सीखो न...!
या तो अपनी साक्षी चेतना में पहुंच जाओ
वहां ओंकार की धुन सुनो अंतस प्रकाश का अवलोकन करो
या अपने बाहर शरीर के तल पर आ जाओ..
इंद्रियों के प्रति संवेदनशील बनो।
अपनी कर्मेन्द्रियों की, अपने हाथ-पैरों की गति का जरा उनका ख्याल करो।
वहां होश को लाओ।
तुम अपने होश को मन पर फोकस करके मत बैठो..
नहीं तो पागल हो जाओगे।
इसलिए मैंने कहा कि हमारे होने के चार आयाम हैं-
तन, मन, हृदय और चेतना।
मन और हृदय हमेशा डावांडोल होते रहते हैं। वे रोज बदलते रहते हैं।
रोज क्या, दिन में कई बार बदलते हैं।
लेकिन हम वहां से खिसक सकते हैं।
थोड़ी देर के लिए ही सही
एक बार तुमको कला हाथ में लग गई तो तुम्हारा जीवन परमानंद से भर जाएगा।
अगर तुम मन से लड़े..तो तुमको वहीं रह के लड़ना पड़ेगा।
वो रेगिस्तान का आदमी सोचे कि मैं रेगिस्तान की इस गर्मी से लू से..
गर्म हवाओं से लड़ूंगा
तो उसको वहीं रह कर लड़ना पड़ेगा..वहां से हट नहीं सकता।
वो एस्किमो सोचे कि..मैं इस बर्फ को पिघला कर रहूंगा।
बेचारा मर जाएगा।..लेकिन बर्फ नहीं पिघलेगा।
और उसको वही रहना पड़ेगा बर्फ से लड़ने के लिए।
मैं आप से कह रहा हूं..कि ना रेगिस्तान से लड़ो..ना बर्फ से लड़ो।
कृपा करके वहां से हटो।
दुनिया बहुत बड़ी है, बहुत सुंदर-सुंदर जगह हैं।
तुमने कोई ठेका ले लिया है वहीं रहने का?
यही बात मैं आप से कहता हूं।
मन ही सब कुछ नहीं है। हमारे पास और बहुत कुछ है।
एक बार आप हटने की कला सीख गए
तो आपका मन एकदम शांत हो जाएगा।..क्यों?
क्योंकि वह ऊर्जा वही है..जो विचारों को चलाने में, तथा भावनाओं को चलाने में लगती है।
आपने उस ऊर्जा को कहीं और लगा दिया
तो विचारों को चलाने के लिए कुछ बचा ही नहीं।
जैसे आप के घर में बल्ब जल रहा है
और आपने गीजर या ए.सी. अॅान कर दिया..तब अचानक बल्ब डिम हो जाएगा।
क्योंकि आपके घर में मीटर से जो बिजली आ रही है..वह निश्चित मात्रा की है।
अब वो गीजर ने खींच ली,
बल्ब को मिलने वाली ऊर्जा कम हो गई।
तो बल्ब डिम हो जाएगा।
हमारी सारी ऊर्जा फिलहाल मन को और हृदय को मिल रही है
इस ऊर्जा को हम डायवर्ट करें
या तो बाहर तन-केंद्रित करें..या भीतर चेतन-केंद्रित करें।
जैसे ही ऊर्जा डायवर्ट हुई
मन को व हृदय को मिलने वाली ऊर्जा कम हुई..वे अपने आप शांत हो जाएंगे।
हमें शांत करना थोड़ी पड़ेगा!
जैसे नदी पर बाँध बना देते हैं, पानी इकट्ठा हो गया।
फिर नहर खोद कर पानी को दूर ले गए खेतों में सींचने के लिए।
या बिजली पैदा करने के लिए जनरेटर में ले गए।
सारा पानी नहरों में चला गया।
जहां से नदी पहले बहती थी..अब वो जगह सूख गई।
हमने पानी कहीं और भेज दिया, उसका दूसरा उपयोग कर लिया।
ठीक ऐसे ही हमारी जीवन-ऊर्जा है वाइटल फोर्स या लाईफ एनर्जी है।
विचारों और भावनाओं के ऊहा-पोह में फँसी है वहां संलग्न है।
और अगर हम मन से ऊब भी जाते हैं..तो हम वहीं रह कर..उससे लड़ने की कोशिश करते हैं।
कुछ होगा नहीं सफलता नहीं मिलेगी।
वहां से हट जाओ। नई दिशा में नहर खोदो।
दो दिशाएं है आपके पास जाने के लिए-
जिन लोगों को भीतर साक्षी भाव में रमना आता है
ओंकार-आलोक का ज्ञान हो गया है
जिन्होंने ओशोधारा समाधि कार्यक्रम किए हुए हैं..उनके लिए बड़ा आसान है।
वे अपने भीतर खिसक जाएं।
दिन में दस-बीस बार जब मौका मिला
चंद मिनट के लिए भी अपने भीतर खिसक गए बस, बात बन जाएगी।
सारी ऊर्जा वहां डायवर्ट हो जाएगी।
मन को मिलने वाली शक्ति खत्म हुई
तब विचार चलेंगे कैसे?
वह जो चंचलता थी,..विचलन था,..डावांडोलपन था..वो चलेगा कैसे?
चलाने के लिए तो शक्ति चाहिए।
और शक्ति हमने दूसरी तरफ संलग्न कर दी।
जिन लोगों को अपने चैतन्य का ज्ञान नहीं है
कोई बात नहीं..वे दूसरा प्रयोग करें।
अपनी ज्ञानेंद्रियों और अपनी कर्मेंद्रियों के प्रति सजग होना सीखें।
सारी ऊर्जा वहां लगा दें।
जो काम कर रहे हैं..पूरी तरह से उसमें जीएं।
जब आप भोजन कर रहे हैं..तो भोजन का स्वाद ही सब कुछ हो जाए..और सारा संसार भूल जाए।
जब आप चल रहे हैं..तो बस चल रहे हैं।
जब आप स्नान कर रहे हैं
और श्ॅावर से पानी की छोटी-छोटी बूंदें शरीर पर पड़ रही हैं
तब उनके शीतल अनुभव को स्पर्श करें।
टॅावल से आप बदन पोंछ रहे हैं..उस टच को..उस स्पर्श को महसूस करें
आप पाएंगे कि मन की चंचलता खत्म हुई।
ये दो उपाय हैं।

ओशो

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