कितना शोर
कितनी आवाज़ें हैं यहाँ,
कान होकर भी
जो कभी सुनाई नहीं देतीं,
अजीब इत्तेफ़ाक़ है
या कहो विडम्बना है,
जब कभी की
खुद को शांत करने की कोशिश
मन को, माया को
क्रोध को, सभी को
बंद करने की कोशिश,
तभी ये आवाज़ें
अचानक ही कानों में
जमघट लगा देती हैं
बोध कराती हैं
आँख है, लेकिन खुली नहीं,
मानव है, लेकिन मानवता नहीं..
न जाने कैसा संयोग है,
कलम है लेकिन कविता नहीं..
Sunday, 1 July 2018
कितना शोर, कितनी आवाज़ें हैं यहाँ...
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