Monday, 17 November 2025

जब मन हार मानता है, तभी जीत थोड़ी दूर खड़ी होती है।


रात के लगभग साढ़े नौ बजे थे। कमरे की खिड़की से हल्की ठंडी हवा आ रही थी और एक छोटा-सा बल्ब, जिसकी रोशनी बहुत तेज़ नहीं थी, कमरे में बस इतनी उजियाली फैला पा रहा था कि सामने वाली मेज़ दिख सके। नीरज की किताब खुली पड़ी थी, लेकिन उसका मन कहीं और भटक रहा था। सरकारी नौकरी की तैयारी करते-करते उसे एक साल से ज़्यादा हो गया था। कई बार लगा था कि अब नहीं होगा उससे, और कई बार ऐसा भी महसूस हुआ था कि वो सबसे पीछे रह गया है। लेकिन उसके पिता हमेशा कहते थे, “बेटा, जब मन हार मानता है, तभी जीत थोड़ी दूर खड़ी होती है।” आज वही शब्द उसे बार-बार याद आ रहे थे, लेकिन मन फिर भी भारी था।

नीरज को याद आया कि कैसे शुरुआत में वह कितना जोश लेकर पढ़ाई शुरू करता था। पहले दिन जब उसने किताबें खरीदी थीं, तब घर लौटकर वह उन्हें ऐसे संभालकर रख रहा था, जैसे कोई सैनिक अपनी बंदूक तैयार करता है। उसके पिता ने उस दिन उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा था, “तू पढ़ ले, तू कर लेगा।” माँ ने उसके लिए चाय बनाई थी और उसकी आंखों में गर्व था। पूरा घर जैसे उसके सपनों के साथ जुड़ गया था। उस दिन नीरज के अंदर एक अजीब-सी आग थी—कुछ कर दिखाने की। लेकिन वक्त बीतते-बीतते वह आग कभी छोटी लौ बन जाती, कभी बुझने के कगार पर।

कमरे में बैठे-बैठे नीरज की नज़र अचानक घर की दीवार पर लगी एक पुरानी फोटो पर पड़ी। फोटो में वह छोटा था, शायद सात या आठ साल का। स्कूल में पहले स्थान पर आया था उस साल। तस्वीर में वह अपनी रिपोर्ट कार्ड पकड़े खड़ा था, और उसके बगल में उसकी माँ उसे सीने से लगाकर खड़ी थीं। माँ की आँखों में चमक थी, और पिता की आँखों में गर्व। उस तस्वीर में नीरज को अपना चेहरा याद आया—उसके अंदर का आत्मविश्वास, वो मासूम खुशी, और वह एहसास कि वह किसी भी चीज़ को हासिल कर सकता है। अचानक उसकी आँखें नम होने लगीं। उसे लगा जैसे उस फोटो वाला छोटा नीरज उसे देख रहा है और पूछ रहा है: “कहाँ खो गया तू? तू तो कभी हार मानने वाला नहीं था।”

नीरज उठा और धीरे-धीरे उस तस्वीर के पास गया। उसने उँगली से तस्वीर में अपनी छोटी उम्र वाली तस्वीर के चेहरे पर हाथ रखा। उसी वक़्त माँ की आवाज़ कमरे के बाहर से आई, “नीरज बेटा, थोड़ा खाना खा ले… सारा दिन पढ़ता रहा होगा।” नीरज चौंका। माँ की आवाज़ में वही ममता थी जो बचपन में थी। और यकायक उसे एहसास हुआ कि वह जिनके लिए मेहनत कर रहा है, वे आज भी उसी पर भरोसा करते हैं—बिना शर्त, बिना सवाल। उनके लिए उसकी हार या जीत से ज्यादा मायने रखता है कि वह कोशिश कर रहा है।

माँ खाने का प्लेट लेकर कमरे में आईं। उन्होंने उसे देखा, फिर उसकी आँखें। “सब ठीक है ना?” उन्होंने धीरे से पूछा। नीरज ने बस सिर हिला दिया। माँ ने किताब उठाई और बोलीं, “बेटा, ये किताब तुम्हारे हाथ में है, लेकिन मेहनत और भरोसा तुम्हारे दिल में होना चाहिए। अगर मन में भरोसा टूट जाए, तो किताबें भी कुछ नहीं कर पाएंगी।” इतना कहकर वह चली गईं, लेकिन उनके शब्द जैसे कमरे में हवा की तरह फैल गए।

नीरज फिर से मेज़ पर बैठ गया। उसने किताब खोली। इस बार ऐसे नहीं कि बस पन्ने पलट दे—बल्कि ऐसे जैसे कोई योद्धा अपना हथियार फिर से उठाता है। उसने अपने दिमाग में बार-बार एक ही बात कही, “मैं कर सकता हूँ—और मुझे करना ही होगा।” उसने पढ़ना शुरू किया। कुछ ही मिनटों में उसे महसूस हुआ कि उसे नींद नहीं आ रही, थकान नहीं हो रही, बल्कि एक अजीब-सा उत्साह लौट रहा है। वह हर लाइन को समझने लगा। हर सवाल का जवाब उसके दिमाग में तेजी से बैठने लगा। जैसे मिसिंग टुकड़े वापस जगह पर आ रहे हों।

रात बढ़ती जा रही थी, पर नीरज को समय का अंदाज़ा नहीं था। जब उसने घड़ी देखी, तो लगभग दो बजने वाले थे। लेकिन उसे लगा जैसे अभी तो उसकी पढ़ाई शुरू हुई है। उसके दिल में अब डर नहीं था—सीखने की इच्छा थी, आगे बढ़ने की हिम्मत थी। उसने सोचा, “अगर आज मैं खुद को नहीं उठा पाया, तो कल दुनिया मुझे नहीं उठा पाएगी।” और फिर उसने अपनी नोटबुक निकाली और खुद के लिए एक वाक्य लिखा: “मैं तब तक नहीं रुकूँगा जब तक अपने माँ-पापा की आँखों में वही चमक वापस न देख लूँ।”

और उस रात नीरज की ज़िंदगी नहीं बदली, लेकिन उसका मन बदल गया—और ज़िंदगी उन्हीं से बदलती है।

सीख: कुछ सपने किताबों से नहीं, अंदर से पढ़े जाते हैं। जब मन उठता है, तभी पढ़ाई रंग लाती है। और जब हम खुद से नहीं हारते, दुनिया हमें जीतने से नहीं रोक पाती।

Tuesday, 11 November 2025

अच्छे विचार से ही हम अपने उद्देश्यों तक पहुंच सकते हैं


मनुष्य को अन्य जीव-जंतुओं से इसकी विचारशीलता ही अलग करती है। विचारशीलता अगर सकारात्मक रूप में है तब वह व्यक्ति को महान, अच्छा इंसान और समाज सुधारक बनाती है। लेकिन यदि यह नकारात्मक रूप में है तब वह मनुष्य को विनाश की तरफ ले जाती है। राक्षस हो या देवता, यह दोनों मनुष्य रूप में ही होते हैं। लेकिन दोनों में अंतर सिर्फ विचारों का ही होता है। जिनके विचार नकारात्मक होते हैं, वे राक्षसों की श्रेणी में रखे जाते हैं, और जिनके विचार सकारात्मक होते हैं, जो सबको आपस में जोड़ते हैं, ऐसे लोग ही देवता कहलाते हैं। देवत्व सुविचार से ही विकसित होता है।

विचारों से हममें संवेदना उत्पन्न होती है और विचार ही हमें असंवेदनशील बनाते हैं। एक संवेदनशील व्यक्ति सिर्फ अपना ही नहीं बल्कि परिवार, समाज, देश और दुनिया का भला कर सकता है। संवेदना हमें सकारात्मक सोच की ओर लेकर जाती है। लेकिन यही विचार अगर नकारात्मक होते हैं तो वे व्यक्ति के विचारों को विकलांग बना देते हैं। सकारात्मक विचारों वाले लोग रचनात्मक एवं सर्जनशील होते हैं। वे हमेशा निर्माण की सोचते हैं और दूसरों का कष्ट नहीं देख सकते। वे जानते हैं कि कष्ट हमेशा व्यक्ति को गलत विचारों की ओर धकेलता है। इसलिए मदद के लिए उनका हाथ हमेशा आगे रहता है।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार विचारशील व्यक्ति दूसरों से अच्छी बातें तो सीखते हैं, लेकिन वह उनके जैसे भी नहीं बनते हैं। दरअसल कुविचार की प्रकृति हमें उनका दास बनाने की होती है, जबकि सुविचार हमें अपना मालिक बनाते हैं। उनका यह भी कहना है कि विचारशील व्यक्ति जब तक अपने आप में विश्वास पैदा नहीं कर लेता है, तब तक वह ईश्वर में भी विश्वास नहीं करता। वह अपने आप से बात करता रहता है, स्वयं से सवाल करता है, तर्क करता है। जबकि जो ऐसा नहीं करते, वे इस दुनिया के सबसे अच्छे इंसान से मिलने से सदैव वंचित रहते हैं। विचारशील व्यक्ति के विचारों से उनके पूरे जीवन की झांकी देखने को मिल जाती है। वह लोगों के भले का विचार करता है, और ऐसी दुनिया में जीता है, जहां निगेटिविटी के लिए कोई स्पेस नहीं होता। और जब कोई इतना पॉजिटिव हो जाता है तो सफलता उसके कदम चूमने में तनिक भी देर नहीं करती है।

दुनिया के महान दार्शनिक अरस्तु के अनुसार विचारशीलता एक तर्कसंगत सोच की प्रतिक्रिया होती है। उनके अनुसार जो भी व्यक्ति यह जानता है कि क्या करने से सबका भला होगा, वही विद्वान है। सबकी भलाई सोचने में काफी विचार करना होता है, इसलिए विचारशील व्यक्ति अक्सर कम बोलते हैं, लेकिन जब बोलते हैं तो बिलकुल सटीक बोलते हैं। अगर हममें सुविचार हैं तो वे चेहरे पर दमकते हैं। लेकिन कुविचार हैं तो चेहरा अपने-आप ही मलिन पड़ता जाता है।

भगवद्गीता के अनुसार व्यक्ति विचारशील ही है। मानव जीवन केवल खाने, सोने, बच्चे पैदा करने के लिए ही नहीं होता है, क्योंकि यह सभी गुण तो पशु, पक्षियों में भी पाए जाते हैं। मानव अपनी विद्वता, विचारशीलता और कार्य-कारण को जानने की क्षमता के कारण ही पशु, पक्षी और कीट-पतंगों से भिन्न होता है। वेदों के अनुसार भी विचारशीलता और कार्य-कारण संबंध को जानने की वजह से ही मनुष्य अन्य पशु, पक्षियों से अलग होता है।